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________________ आत्मा २. आत्मा की अदृश्यता के हेतु सो जइ देहादन्नो तो पविसंतो व निस्सरंतो वा । कीस न दीसइ, गोयम ! दुविहाऽणुवलद्धिओ सा य ॥ असओ खरसंगस्स व सओ वि दूराइभावओऽभिहिया । सुमामुत्तत्तणओ कम्माणुगयस्स जीवस्स || ( विभा १६८२, १६८३) यदि जीव शरीर से भिन्न है तो उसका शरीर में प्रवेश और निर्गम दिखाई क्यों नहीं देता ? १. असत् की अनुपलब्धि - जैसे गधे के सींग | २. सत् की अनुपलब्धि जैसे स्वर्ग । ( नन्दी मवृ प ३ ) जो मिथ्यात्व आदि दोषों के कारण वेदनीय आदि अनुपलब्धि ( दिखाई न देना) दो प्रकार की होती कर्मों का कर्त्ता है, कर्मफल- सुख-दुःख का भोक्ता है, कर्मोदय के अनुसार नारक आदि भवों में संसरण करता है तथा सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उत्कृष्ट आराधना से कर्मक्षय कर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है, वही आत्मा है । पदार्थ की सत्ता होने पर भी उसके दिखाई न देने के अनेक कारण हैं । मलधारी हेमचन्द्र ने (विभामवृ पृ ६१७ ) इसके इक्कीस कारण बतलाये हैं १. दूरी के कारण जैसे स्वर्ग । २. अतिनिकटता - जैसे नयनतारिका । ३. अतिसूक्ष्मता -- जैसे परमाणु । ४. मन की चंचलता ५. इन्द्रियों की अपटुता ६. मतिमान्द्य ७. अशक्यता १३. विस्मृति १४. दुरागम १५. मोह १६. विदर्शन - जन्मान्धता १७. विकार १५. अक्रिया १०. सामान्य १९. अनधिगम ११. अनुपयोग २०. काल - विप्रकर्ष २१. स्वभाव - विप्रकर्ष १२. अनुपाय आत्मा अमूर्त है, अतः वह दृश्य नहीं है । यद्यपि संसारी आत्मा कर्मशरीर से अनुगत है, किंतु कर्मशरीर अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण आत्मा दिखाई नहीं देती । ३. आत्मा का कर्तृत्व-भोक्तृत्व ८. आवरण ९. अभिनव ९४ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टयसुपट्ठिओ ॥ ( उ २०१३७ ) आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली है और वही उनका क्षय करने वाली है । सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा Jain Education International आत्मा की नित्यता- अमूर्तता - अन्यता ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है । यो मिथ्यात्वादिकलुषिततया वेदनीयादिकर्मणामभिनिर्वर्त कस्तत्फलस्य च सुखदुःखादेरुपभोक्ता, नारकादिभवेषु च यथाकर्म्मविपाकोदयं संसर्त्ता, सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्ष वशाच्चा शेषकम्मशापगमतः परिनिर्वाता, स प्राणान् धारयति स एव चात्मेत्यभिधीयते । अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ ( उ २० / ३६) आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है, आत्मा ही कामदुघा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है । ४. आत्मा की नित्यता-अमूर्तता अन्यता कारण विभाग - कारणविणास बंधस्स पच्चयाभावा । विरुद्धस्स य अत्थस्सापादुब्भावाविणासा य ।। निरामयामयभावा बालकयाणुसरणादुवट्ठाणा सोताहिं अगहणा जाइसरणा थणभिलासा ॥ सव्वण्णवदिट्ठत्ता सकम्मफलभोयणा अमुत्तत्ता । जीवस्स सिद्धमेवं णिच्चत्तममुत्तमण्णत्तं ॥ (दनि १३२-१३४; अचू पृ ६९, ७० ) आत्मा की नित्यता आदि के पोषक बिन्दु -- १. कारण - विभाग का अभाव - तन्तु पट का कारण है और उस तन्तु में विभाग होते हैं। परन्तु जीव के आत्मप्रदेशों के समवाय में विभाग नहीं होता । उसके घटक का कोई कारण नहीं है । २. कारण विनाश का अभाव जैसे घट के विनाश का कारण मुद्गर आदि है, वैसे आत्मा के विनाशक कारणों का अभाव है । इसलिए कारण के विनाश का प्रश्न ही नहीं होता । ३. बंध - प्रत्यय का अभाव - आत्मा नित्य है । उसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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