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________________ आचार समाधि के प्रकार आचार गृहनिषद्या-वर्जन शोभा-वर्जन विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं अवहे वहो । सिणाणं अदुवा कक्कं, लोद्धं परमगाणि य । वणीमगपडिग्घाओ, पडिकोहो अगारिणं॥ गायस्सुव्वट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ।। अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ यावि संकणं । (द ६।६३) कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ।। मुनि शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए गन्धचूर्ण, (द ६।५७,५८) कल्क, लोध्र, पद्मकेसर आदि का उबटन न करे । गहस्थ के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य -आचार का नगिणस्स वा वि मुंडस्स, दीहरोमनहंसिंणो । विनाश, प्राणियों का अवधकाल में वध, भिक्षाचरों के मेहणा उवसंतस्स, किं विभूसाए कारियं ॥ अन्तराय और घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है। विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है तथा स्त्री के प्रति भी शंका संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।। होती है। यह (गृहान्तर निषद्या) कुशीलवर्धक स्थान है विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मन्नंति तारिसं । इसलिए मुनि इसका दूर से वर्जन करे। सावज्जबहलं चेयं, नेयं ताईहिं सेवियं ।। (द ६।६४-६६) गृहनिषद्या का अपवाद नग्न, मुण्ड, दीर्घ रोम और नख वाले तथा मैथुन तिण्हमन्नयरागस्स, निसेज्जा जस्स कप्पई। से निवृत्त मुनि को विभूषा से क्या प्रयोजन है ? जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिणो।। विभूषा के द्वारा भिक्षु चिकने कर्म का बन्धन (द ६।५९) करता है। उससे वह दुस्तर संसार-सागर में गिरता है । जराग्रस्त, रोगी, तपस्वी-इन तीनों में से कोई भी विभषा में प्रवत्त मन को तीर्थडर विभषा के तल्य साधु गृहस्थ के घर में बैठ सकता है। ही चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं। यह एगतेण निसेहो जोगेसु न देसिओ विही वावि । प्रचर पापयुक्त है। यह छहकाय के त्राता मनियों द्वारा दलिअं पप्प निसेहो होज्ज विही वा जहा रोगे ।। आसेवित नहीं है। (ओनि ५५) ८. अकल्प आदि के वर्जन का प्रयोजन गमनागमन आदि योगरूप व्यापार का एकान्त रूप से विधि और निषेध नहीं है। रोग में पथ्य-अपथ्य की जहा पंचमहत्वयाणं रक्खणनिमित्तं पत्तेयं पंच पंच भावणाओ तह अकप्पादीणि छद्राणाणि वयकायाणं तरह प्रयोजन के अनुसार ही विधि और निषेध है। रक्खणत्थं भणियाणि । जहा वा गिहस्स कुडुकवाडस्नान-वर्जन जत्तस्सवि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवन्ति वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए। तह पंचमहन्वयजुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणत्थं इमे वोक्कतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ॥ उत्तरगुणा भवन्ति। (दजिचू पृ २२६) (द ६६०) जैसे पांच महाव्रतों की रक्षा के लिए पच्चीस साधु रोगी हो या नीरोग, जो स्नान करने की (प्रत्येक महाव्रत की पांच) भावनाएं होती हैं, वैसे ही अभिलाषा करता है, उसके आचार का उल्लंघन होता व्रत और छह काय की रक्षा के लिए ये छह स्थान है । वह संयम से च्युत हो जाता है। वर्जनीय हैं.... अकल्पग्रहण, गह-पात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान संतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलुगासु य । और विभूषा। जिस प्रकार भींत और किवाड़ युक्त गह जे उ भिक्खू सिणायंतो, वियडेण प्पिलावए ।। के लिए भी दीपक और जागरण---ये दो रक्षा के हेतु (E ) होते हैं, वैसे ही पंचमहाव्रत युक्त साध के लिए भी पोली भूमि और दरारयुक्त भूमि में सूक्ष्म प्राणी उत्तरगुण महाव्रतों के अनुपालन के हेतु होते हैं । होते हैं । अप्रासुक जल से स्नान करने वाला भिक्षु उन्हें ६. आचार समाधि के प्रकार जल से प्लावित करता है। चउविवहा खल आयारसमाही भवइ, तं जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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