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________________ अहिंसा जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स || परमरहस्समिसीणं समग्गणिपिडगभरितसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ॥ (ओनि ७५९,७६० ) जो सूत्र और अर्थ का ज्ञाता है, जिसकी भावधारा विशुद्ध है, उस जागरूक गीतार्थ मुनि द्वारा होने वाली विराधना भी निर्जरा फल वाली होती है (एक समय में बद्धकर्म दूसरे समय में क्षीण हो जाते हैं ) - यह द्वादशांगवेत्ता ऋषियों से प्राप्त रहस्य है । निश्चयनयाव - लम्बी के लिए परिणामधारा ही प्रमाण है । नास्ति तस्य साधोहिंसाफलं - साम्परायिकम् । यदि परमीयप्रत्ययं कर्म भवति, तच्चैकस्मिन् समये बद्धमन्यस्मिन् समये क्षपयति । ( ओनिवृ प २२०, २२१) हिंसा के फलस्वरूप सांपरायिक कर्मबंध होता है । उस अप्रमत्त मुनि के साम्परायिक कर्मबन्ध नहीं होता, पथिक कर्मबन्ध होता है। प्रथम समय में बद्ध वह कर्म दूसरे समय में क्षीण हो जाता है । अविसिट्ठमिव जोगंमि बाहिरे होइ विहुरया इहरा । सुद्धस्स उ संपत्ती अफला जं देसिआ समए ॥ (ओनि ५१ ) गृहस्थ और साधु के प्राणातिपात आदि बाह्य क्रियायें समान होने पर भी उनका परिणाम असमान होता है । वीतराग साधु के प्राणातिपात आदि की क्रिया अफल हो जाती है। उससे बन्ध नहीं होता, ऐसा सिद्धांत में कहा गया है। ६. अहिंसा का व्यावहारिक हेतु सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ (द ६।१०) सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसीलिए प्राणवध भयानक है । निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं । अज्झत्यं सव्वओ सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए । (उ६६) सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म (सुख) जैसे मुझे इष्ट है, वैसे ही दूसरों को इष्ट है और ७८ Jain Education International अहिंसा : श्रमण का आचार सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है- यह देखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों की घात न करे । १०. हिंसा-अहिंसा और नय आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ, हिंसओ इयरो ॥ (ओनि ७५४ ) निश्चय नय से आत्मा ही अहिंसा है और वही हिंसा है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है । जो प्रमत्त हैं, वह हिंसक है । नैगमस्य जीवेष्वजीवेषु च हिंसा संग्रहव्यवहारयोः षट्सु जीवनिकायेषु हिंसा, संग्रहश्चात्र देशग्राही द्रष्टव्यः सामान्यरूपश्च नैगमान्तर्भावी । व्यवहारश्च स्थूल विशेष - ग्राही लोकव्यवहरणशीलश्चायं । ऋजुसूत्रश्च प्रत्येकं प्रत्येकं जीवे जीवे हिंसां व्यतिरिक्तामिच्छतीति । शब्दसमभिरूढैवंभूताश्च नया आत्मैवाहिसा आत्मैव हिंसेति । (ओनिवृ प २२१) नगम नय के अनुसार हिंसा और अहिंसा का प्रयोग जीव और अजीव - दोनों से संबंधित है । संग्रह और व्यवहार नय के अनुसार हिंसा छह जीवनिकाय से संबंधित है- यह कथन देशग्राही संग्रह की अपेक्षा से है । सामान्य संग्रहनय नैगम के अन्तर्भूत है । व्यवहार स्थूल विशेषग्राही है । ऋजुसूत्र नय के अनुसार हिंसा प्रत्येक जीव के साथ पृथक्-पृथक् रूप से संबंधित है । शब्द, समभिरूढ़ एवं एवंभूत नय के अनुसार आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है | ११. अहिंसा : श्रमण का आचार पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अक्खुसे || (द ६।२६, २७) सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया – इस त्रिविध करण और कृत, कारित एवं अनुमति - इस त्रिविध योग से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करता । जो पृथ्वीकाय की हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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