SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमावधि असंख्येय आकाशखण्ड जितना है । यह अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र है । ठाइ असंखेज्जाई निययावगाहणागणिजीवसरीरावली समंते । भामिज्जइ ओहिन्नाणिदेहपज्जतओ सा य ॥ अइगंतूण अलोगं लोगागा सप्पमाणमेत्ताइं । इदमोह्खेित्तमुक्कोसं ।। ( विभा ६०३, ६०४ ) लोक के असंख्येय प्रदेशों में अवगाहित पंक्तिरूप में व्यवस्थित उन अग्निजीवों की सूची काल्पनिक रूप से अवधिज्ञानी के शरीर के चारों ओर घुमाइ जाए तो वह लोक जितने व्यापक असंख्येय आकाश खंडों का अतिक्रमण कर आलोक में जा ठहर जाती है । यह अवधि - ज्ञानी का उत्कृष्ट क्षेत्र है । सामत्थमेत्तमेयं जइ दट्ठव्वं हवेज्ज पेच्छेज्जा । न य तं तत्थत्थि जओ से रूविनिबंधणो भणिओ ॥ ( विभा ६०५ ) यदि इतने क्षेत्र में कुछ भी द्रष्टव्य रूपी पदार्थ हो तो अवधिज्ञानी उसे देख सकता है। यह अवधिज्ञान का मात्र सामर्थ्य बताया गया है। अवधिज्ञान का विषय है रूपी पदार्थ, जो आलोक में नहीं है । परमावधि का विषय परमोहि असंखिज्जा, लोगमित्ता समा असंखिज्जा । रूवगयं लहइ सव्वं, खित्तोवमिअं अगणिजीवा ॥ ( आवनि ४५ ) परमावधि क्षेत्रतः असंख्येय लोक परिमित खंडों को जानता है । कालतः वह असंख्येय उत्सर्पिणीअवसर्पिणी को जानता है । द्रव्यतः सब मूर्त्त द्रव्यों को जानता है । उसका क्षेत्रोपमान अग्नि जीवों के समान 1 वड्ढतो पुण बाहि लोगत्थं चेव पासई दव्वं । सुहुमयरं सुहुमयमं परमोही जाव परमाणुं ॥ ( विभा ६०६ ) सामर्थ्य से लोक के बाहर बढ़ता हुआ वह अवधिज्ञान लोक में स्थित द्रव्यों को ही देख सकता है। वह परमावधि सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम परमाणु को भी देख सकता है। Jain Education International ५५ परमावधि नौ पूर्वजन्मों को जानता है। एगपएसोगाढं परमोही लहइ कम्मगसरीरं । लहइ य अगुरुलघुअं, तेयसरीरे भवपुहत्तं ॥ ( आवनि ४४ ) यसरीरं पास पासइ सो भव हुत्तमेगभवे । सुं बहुतरए सरिज्ज न उ पासए सब्वे || ( विभा ६७७ ) प्रदेश में अवगाढ परमाणु कार्मण शरीर और गुरुलघु। जो अवधि तैजस शरीर को देखता है, वह कालतः भवपृथक्त्व (दो से नौ) भवों को देखता है उस भवपृथक्त्व के मध्य किसी भव में यदि उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो तो उस अवधिज्ञान से दृष्ट पूर्व भवों की उसे स्मृति होती है, उनका साक्षात् नहीं होता । एगपएसोगा भणिए कि कम्मयं पुणो भणियं । ( विभा ६७८ ) यः सूक्ष्मं परमाण्वादि पश्यति तेन बादरं कार्मणशरीराद्यवश्यमेव द्रष्टव्यम्, यो वा बादरं पश्यति तेन सूक्ष्ममवश्यं ज्ञातव्यमित्ययं न कोऽपि नियमः । (विभामवृपृ २९२ ) शिष्य ने पूछा- एक प्रदेशावगाढ परमाणु आदि सूक्ष्म वस्तुओं को जानने वाला परमावधि कर्मशरीर आदि स्थूल वस्तुओं को तो जानता ही है, फिर कर्मशरीर को स्वतंत्र रूप से क्यों ग्रहण किया गया है ? परम अवधिज्ञानी एक यावत् अनंतप्रदेशी स्कन्ध, अगुरुलघु द्रव्यों को देखता अवधिज्ञान गुरु ने कहा- यह कोई नियम नहीं है कि जो सूक्ष्म परमाणु को देखता है, वह बादर कार्मणशरीर आदि को अवश्य देखता है अथवा जो बादर को देखता है, वह सूक्ष्म को अवश्य देखता है । ..... सहयरं पेच्छं तो थूलयरं न मुणइ घडाई ॥ जह वा मणोविओ नत्थि दंसणं सेसएऽतिथूले वि । ( विभा ६८०, ६८१ ) सूक्ष्मतर पदार्थों को जानने वाला अवधिज्ञानी घट आदि स्थूल पदार्थों को नहीं जानता । जैसे मनः पर्यवज्ञानी सूक्ष्म मनोद्रव्य को तो जानता है, पर वह शेष अतिस्थूल पदार्थों को नहीं जानता । परम अवधिज्ञानी को कंवल्य परमोहित्राणविओ For Private & Personal Use Only केवलमंतोमुहुत्तमित्तेण ।......... (विभा ६८९ ) www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy