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________________ ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है। इससे कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है । देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है । जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी के राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है; अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है । यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है । का लालची बना करवाता है, पर मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म यह जीव को क्षणभंगुर सुख कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है साता का वेदन तो यह अत्यल्प असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन कराता है । मोहनीय कर्म मदिरा के समान है । मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश- हवास खा बैठता है; इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरुप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसके संसार परिभ्रमण का मोह महामद पिया अनादि, भूठि आपकु' भरमत बादि। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है । | तक हममें विद्यमान है ममकार जितना जितना जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है अहंकार और ममकार जय तब तक हम मेोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और पटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है । यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस महराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकुम करती है। है । इसने ही जीव को संसार को भूलभुलैया में । जीव को भेदविज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म अटकाये रखा है । और बेडी के समान हे आयुष्य फर्म इसने जीव को शरीर रुपी बेडी लगा दी है अनादि से आज तक चली आ रही है । एक बेडी टूटती है; तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है । सजा की अवधि पूरी हुए बिना फेदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव को जन्म जन्म को केंद्र की अवधि पूरी नहीं होती तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता । नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित | करता है; ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तिर्यंच और नरक गति में भ्रमण करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016045
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1652
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size60 MB
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