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________________ माउ अभिधानराजेन्सः। प्रिय "अम्ने ते दीहर सोमण, अन्नु त भुभ जुअलु । ते सम्मुह संपेसिभा, दिति तिरिच्छी घत्त पर ॥४॥ अग्नु सधणपणहारु तं अन्नु जि मुहकमलु ॥१॥ एसी पिउ रूसेसु हउँ, रुट्ठी मर अणुणे।। भग्नु जिकेसकलाचु, सुन्नु जि प्राउ विहि। पग्गिम्ब पर मणोरहर. दुकरु दाउ करो॥॥" प्रा०४ पाद । अब णिम्बिणि घडिन, स गुणलावरणणिहि ॥२॥ प्रिय-प्रिय-त्रिका "वाऽधोरो लुक"।८।४।३६८॥" इति र. प्राइब मुणिहिंवि भंतडी, ते मणिप्रणा गणंति । अखद निराम परमपद, अन्ज वि लउ न लहंति ॥३॥ लुग्वा अपभ्रंशे । “जइ भग्गा पारकडा, तो सहि मझु प्रियेभंसुजले प्राइम्ब गोरिभ-हे सहि उब्धत्ता नयणसर। णा".प्रा०४ पाद । SARAMARNERNMENERRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRREKKEREKASARREARRIERENERA *WERAIKSHA इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकरूपश्रीमद्भद्वारक-जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००० श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अनिधानराजेन्द्रे' पकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRHERMERRRRREE IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII •मन्ये ते दीर्घलोचने , भन्यत्तद् भुजयुगलम् । मन्यः स धनस्तनभार-स्तदन्यदेव मुखकमलम् ॥ १॥ अन्य एख केशकलापः, स भन्य एव प्रायो विधिः। बेन नितम्बिनी षटिता' सा गुणलावण्यानिधिः ॥ १ ॥ जागो मुनीनामपि भ्रान्ति-स्तेन मयिकान् गणयन्ति । अक्षये निरामये परम-पदेऽद्यापि लयं न लभन्ते ॥ ३ ॥ अश्रुजलेन पायो गौर्याः , सखि ! उद्वृत्ते नयनस रसी। तेन (अपरेण ) संमुखे सपोषिते दत्तस्तिर्यग्धातं केवलम् ॥ ४ ॥ एष्यति प्रियो रुषिच्या-म्यहं रुष्टां मामनुनयति । प्राय रतान्मत्तोरथान् , दुष्करान् दयिता करोति ॥ ५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016045
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1652
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size60 MB
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