SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३० ) छन्द की परम आवश्यकता - 'जेम न सहइ कणअतुला, तिचतुलिअं श्रद्धअद्वेण । तेर्मेण सदसवणतुझा, छंद बंद भंगेण " ॥ १५-कहीं कहीं गाथाओं में शब्दों के आयन्त स्वर को 'लुक' | ८ | १|१०| सूत्र से झोप कर माझते हैं, और कहीं आर्पत्वात् भी लोप करते हैं- जैसे एक उदाहरण तृ० ना० ५५६ पृष्ठ में 'किरियात्राइ (ए) ' शब्द पर सूत्रकृताङ्ग की गाथा है कि- “ गई च जो जाइगागई च । इसी तरह अतीत के स्थान में 'तीत ' लिखा करते हैं, और प्र० ना० ७८० पृष्ठ में 'अवञ्च ' शब्दपर 'वेंतियरे ह्मं तू ' और ७७२ पृष्ठ में 'अलाजपरीसह ' शब्दपर 'अलाजए होउदाहरणं' इत्यादि समजना चाहिये । १६- प्रायः बहुत से स्थल पर 'से गुणं' इत्यादि मूलपाठों में ' से ' शब्द आया करता है, उस पर न० १३-१-३ ( स्था० ५६२-२-५)में लिखा है कि- “ से शब्दो मागधी देशी प्रसिद्धोऽयशब्दार्थः, कचिदसावित्यर्थे, कचित्तस्येत्यर्थे प्रयुज्यते । प्रकीर्षक विषय - १ - ज्योतिष्करएक में लिखा है कि स्कन्दिन्नाचार्य की प्रवृत्ति समय में दुःषम धारा के प्रभाव से दुनिक पर जाने पर साधुओं का पढ़ना गुणना सब नष्ट होगया, फिर दुनिक शान्त होने पर जब दो संघों का मिलाप हुआ (जो एक मथुरा में और दूसरा वलभी में था) तब दोनों के पाठ में वाचना भेद हो गया, क्योंकि विस्मृत सूत्रार्थ के पुनः स्मरण करके संघटन में अवश्य वाचनानेद हो जाता है । २-विशेषावश्यक जाष्य आदि कई ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि ' आर्यबैर ' के समय तक अनुयोगों का पार्थक्य नहीं हुआ था, क्योंकि उस समय व्याख्याता और श्रोता दोनों तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे, किन्तु ' आर्यरक्षित' के समय से अनुयोगों का पार्थक्य हुआ है, यह बात प्रथम भाग में ' अज्जरक्खिय ' शब्द पर और ' अणुयोग ' शब्द पर विस्तार से लिखी हुई है । 3 - तृतीय जाग के ५०० पृष्ठ में 'कालियसुय' शब्द पर काञ्जिकश्रुत ( एकादशाङ्गी ) के व्यवच्छेद की चर्चा है, कि सुविधि जिन के तीर्थ का सुविधि और शीतल जिन के मध्य काल में व्यवच्छंद हो गया, और व्यवच्छेद का काल पल्योपमचतुर्थ माना गया है । इसी तरह और भी षट् ( ब ) जिनों में समझना, किन्तु व्यवच्छेद काझ तो सातो - नों के मध्य में इस तरह समझना - " चउजागो १ चजागो २, तिथि य चउजाग ३ पलियमेगं च ४ । तिष्ठेव य चज्ञागा ५, चउत्यन्नागो य ६ चननागो ७ " ॥ १ ॥ इति । परन्तु दृष्टिवाद अङ्ग का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में था, और उसकी अवधि भी नहीं की हुई है। ४- यद्यपि मीमांसादर्शन के तन्त्रवार्तिककार कुमारिल भट्ट ने इस प्राकृतभाषा ( अर्धमागधी ) पर बहुत कुछ प्राप किया है, किन्तु वह उनकी अदूरदर्शिता है और व्यर्थ का ही कटाक्ष हैं, क्योंकि इस कोश के 'पागड ' शब्द पर विशेवाश्यक जाय पर टीकाकार का लेख है कि - ' ननु जैनं प्रवचनं सर्व प्राकृतनिबन्धमिति दुःश्रद्धेयम् । मैवं शक्यम्-' बालस्त्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रका‌ङ्क्षिणाम् | अनुग्रहाय तत्रज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ' ।। १ ! और यह विचारसह जी है क्योंकि जो जाषा 'राष्ट्रभाषा ' या ' मातृभाषा ' जिस समय होती है, उसीमें जो लोगों को उपदेश मिलता है उसीसे आबालवृद्ध पठितापत्रित स्त्री पुरुष सर्वसाधारण जीवों का विशेष उपकार होता है । ए-' वागरण' शब्द पर आ० म० द्वि० कार लिखते हैं कि जगवान् ऋषभ देव ने शक्रेन्द्र से जो व्याकरण प्रथम कहा था वही ऐन्द्र व्याकरण के नाम से प्रख्यात हुआ । तथा कल्पसुबोधिका में लिखा है कि - २० व्याकरण हैं, अर्थात् १ ऐन्ध, २ जैनेन्द्र, ३ सिह हेम, ४ चान्ड, ए पाणिनीय, ६ सारस्वत ७ शाकटायन, ६ वामन, विश्रान्त, १० बुद्धिसागर, ११ सरस्वतीकण्ठाभरण, १२ विद्याधर, १३ कलापक, १४ जीमसेन, १२ शैव, १६ गौम, १७ नन्दि, १६ जयोत्पल, १७ मुष्टि व्याकरण, और २० वाँ जयदेव नाम से प्रसिद्ध है । इसीलिये आवश्यकवृत्ति के दूसरे अध्ययन में लिखा है कि जब ऐन्द्रादि आठ व्याकरण हैं तब कंवल पाणिनीय व्याकरण पर ही आग्रह नहीं करना चाहिये । यद्यपि प्राकृतकल्पलतिका, प्राकृतप्रकाश, हेमचन्द्र, प्राकृत षड्जापाचन्द्रिका, प्राकृतमञ्जरी आदि कई प्राकृत के व्याकरण हैं परन्तु जैसा सिट हेम का प्राकृत व्याकरण बना है वैसा प्रायः सकलविषयसंग्राहक दूसरा प्राकृत का व्याकरण नहीं है । तथापि उसके गद्यमय होने से लोगों को स्थ करने में कठिनता पड़ती देखकर इस कोश के कर्ता हमारे गुरुवर्य पूर्वोक्त सूरीजी महा अष्टमाध्याय उचम Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy