SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिर्यग्योनिक. गर्भापक्रान्तिकभुज०, खचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक,समूचिम०, गर्भापक्रान्ति०, मनुष्यों की. स्त्रियों की, नपुंसकों की,निर्ग्रन्थों की,वाणव्यन्तरों की,वाणव्यन्तरियों की,ज्योतिष्कों की,ज्योतिष्कियों की स्थिति-चन्द्रविम न में,सूर्य विमान में,ग्रहविमान में,नक्षत्रविमान में ताराविमान में स्थिति,वैमानिकों की स्थिति सौधर्म कन्प में, ईशान कल्प में,सनत्कुमार कल्प में, माहेन्द्र कल्प में, ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में, महाशुक्र-सहस्रार कम्प में, पानत कल्प में.प्राणत कल्प में, पारणअच्युत कल्प में स्थिति-अधोऽधोग्रेवेयकों की, अधोमध्यमग्रैवेयकों की, अधउपरिवेयकों की, मध्यमाधोत्रेयकों की, मध्यममध्यमवेयकों की, मध्यमउपरिगणैवेयकों की, उपरिमाधोग्रेवेयकों की, उपरिममध्यमवयकों की, उपरिमउपरिम अवेयकों की स्थिति-विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धों में देवों की स्थिति,वेदनीय कर्मों की स्थिति, पुनपुंसकों की स्थिति, अकामकायक्लेशतपस्त्रियों की, व्यन्तरों में उत्पन्न की स्थिति-बाल मरण से मरे हुये व्यन्तरों की, विधवाओं की अल्पारम्भप्रवृत्त व्यन्तरों में उत्पत्रों की स्थिति इत्यादि विषय बहुत मेद प्रभेद से निरूपित हैं। ६-'णक्खत्त' शब्द पर नक्षत्रों की संख्या, इन नक्षत्रों में कब क्या कार्य(गमन प्रस्थानादि) करना, स्वाध्यायादि नचत्र-क्षिप्र, मृदु और ज्ञानवृद्धिकर नक्षत्र, चन्द्रनक्षत्रयोग, कितने भाग नक्षत्र चन्द्र के साथ युक्त होते है.प्रमदयोमी नक्षत्र, कौन नक्षत्र कितने तारावला है, नक्षत्रों के देवता, नक्षत्रों के गोत्र, भोजन.द्वार,नचत्रविजय,सायंकाल और प्रातःकाल में नक्षत्रचन्द्रयोग,अमावास्याओं में चन्द्रनक्षत्रयोग, संवत्सरान्तो में नचत्रचन्द्रयोग,और संस्थान(रचना)आदि विषय है। १०-'णम्मोकार' शब्द पर नमस्कार के भेद, सिद्धनमस्कार, वीतराग के अनुग्रह से रहित होने पर भी नमस्कार का फलद होना, सिद्ध गुण अमूर्त ही होते हैं, नमस्कार का क्रम इत्यादि अनेक विषय द्रष्टव्य है । ११-'णय' शब्द पर नय का लक्षण, अपेक्षानय, सप्तभङ्गी, वस्तु का अनन्तधर्मात्मकत्व, एक जगह अनेकाकार नयप्रमाणबुद्धि, नयज्ञान प्रमात्मक है या भ्रमात्मक है इसपर विचार, द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिक नय,और उन दोनों का मत, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के मध्य में नैगमादि नयों का अन्तर्भाव, नैगमादि ७ मूल नय हैं और उनके मत का संग्रह, 'सिद्धसेन दिवाकर' के मत में ६ नय, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्दनय, एवंभूत नय, ७०० नय, निचेपनययोजना, कौन दर्शन किस नय से उत्पन्न हुआ, शब्दब्रह्मवादियों का मत, अद्वैतवादियों का मत, निश्चय और व्य नयों का अन्तर्भाव, व्यवहार नय से साइख्यमत, वेदान्त और साङ्ख्य का शुद्धाशुद्धत्व, गम और संग्रह का व्यवहार में अन्तर्भाव, कणाद और सौगत (बौद्ध ) का मत, दिगम्बर मत में नय, शब्दनय,अर्थनय , नयों में सम्यक्त्व, नयफल, ज्ञानक्रियानय, नयपार्थक्य आदि विषय दिये हुये हैं। १२–'णरग' शब्द पर नरकदुःखवर्णन,नरकवेक्मा, नरक के बहुत से स्वरूप इत्यादि अनेक विषय हैं। १३-“णाण' शब्द पर पाँच ज्ञान, मति श्रुत भेद से ज्ञान के भेद, ज्ञान का साकारानाकारत्व, ज्ञान का स्वप्रकाशकत्व, तत्त्वज्ञान इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं,और "णिग्गंथ' शब्द पर निर्ग्रन्थ शब्द की व्युत्पत्ति आदि देखना चाहिये। १४-'तपस' शब्द पर तप क्या वस्तु है, अनशन व्रत तप कैसे है, बाह्य और भाभ्यन्तर तप का निरूपण,तप वैसा करना चाहिये जिसमें शरीर की ग्लानि न हो.तप का फल, तप के चार भेद इत्यादि विषय हैं। १५-'तित्थयर'शब्द पर तीर्थकर शब्द की व्युत्पत्ति और यह किसका प्रतिपादक है इसका निरूपण,तीर्थकरों के प्रतिशय.तीर्थकरों के अन्तर.और तीर्थकरों में अष्टादश दोष का प्रभाव,तीर्थंकरों के अभिग्रह और उनकी आदेशसङ्ख्या .आवश्यक, और उनके आहार,जन्मावसर में इन्द्रकृत्य,समानिवेशन,शक्रक्रिया,देवलोक से उतरने के मार्ग.मेरुगमन,उपकरणसंख्या. उपसर्ग:देहमान(उँचाई मादि)चतुर्विंशति जिनों के अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या,कल्पशोधि,कुमारवास, केवल(ज्ञान)नक्षत्र केवलनगरी,केवलतप, केवलमास-तिथि, केवलराशि, केवलवृक्ष, केवलवृक्षमान, केवलवन, केवलवेला,के. लिकाल, केत्रलिसंख्या,गणसंख्या,गणधरसंख्या,गर्भस्थिति,गृहिकाल,गृहस्थावस्था के तीन ज्ञान,गोत्र,चतुर्दशपूर्वी,चक्रित्वकाल,चरित्र,च्युतिनक्षत्र, च्युतिमास,च्युतिराशि,च्युतिवेला,छबस्थत्व,छमस्थावस्था में वीरतपमान,यक्ष, यक्षिणी, जन्मनक्षत्र,जन्मनगरी,जन्मदेश, जन्ममास,जन्मराशि,जन्मवेला,जन्मारक,जन्मारकशेषकाल, तवसंख्या,तीर्थप्रवृत्तिकाल,तीर्थोच्छेदकाल,तीर्थकरनाम, 'चक्रवर्ति,बलदेव,वासुदेव,प्रतिवासुदेव,तीथोत्पत्ति,दीक्षाकाल,दर्शन, दीक्षानक्षत्र, दीक्षापर्याय, दीक्षातरु, दीक्षातप , दीक्षापरिवार , दीक्षापुर, दीदाज्ञान, दीक्षामास , दीक्षाराशि, दीचालोचमुष्टि, दीक्षायन, दीक्षावय, दीक्षाशिविका,दिक्कुमारीकृत्य, अष्टकुमारियों के नाम,और इनके अासनों का चलन, गमनावसर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy