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________________ शिरोपाव देता तो उसको स्वीकार न कर उसके राज्य में जीवधादि हिंसा को बुझाकर आचार्य धर्म की प्रवृत्ति में वधारा करते थे, और अब तो 'श्रीपूज्य' नाम धराकर खुद खेवट कराके शिरोपाव लेने की इच्छा करते हैं, यह सब पुःषम काल में शिथिलाचारादिप्रवृत्ति का प्रनाव जानना चाहिये । अत एव हे शिष्य ! "श्रीपूज्यजी ने जो कुछ लिखा है उस प्रमाणे उद्यम करना चाहिये, क्योंकि बहुत दिन से अपना इनके साथ संवन्ध चला आता है उसको एक दम तोड़ना ठीक नहीं है”। तब अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास रत्न विजयजी जी नवीन श्रीपूज्यजी को दत्तचित्त होकर पढ़ाना प्रारम्भ किया और गच्छाधीश की मर्यादाऽनुसार बर्ताव कराना शुरू किया । श्री. पूज्यजी ने अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास श्री रत्न विजयजी को विद्यागुरु समझकर आदर, सत्कार, विनय आदि करना शुरू किया। पन्यासजी ने भी श्रीपूज्य श्रादि सोलह व्यक्तियों को निःस्वार्थ वृत्ति से पढ़ाकर विद्वान् कर दिया । श्रीपूज्यजी महाराज ने अपने विद्यागुरु का महत्व बढ़ाने के लिये दफतरीपन का ओहदा [ अधिकार ] सौंपा अर्थात् जो पदवियाँ किसी को दी जाय और यतियों को अलग चौमासा करने की श्राज्ञा दी जाय तो उनको पट्टा पन्यास 'श्री रत्नविजयजी' के सिवाय दूसरा कोई भी नहीं कर सके ऐसा अधिकार अर्पण किया। तब ज्योतिष, वैद्यक और मंत्रादि से जोधपुर और बीकानेर नरेशों को रन्जितकर छमी उशाला प्रमुख शिरोपाव और परवाना श्रीधरणेन्प्रसूरिजी को लेट कराया। एक समय संवत् १९२३ का चौमासा 'श्री धरणेन्ऽसूरिजी'ने शहर 'घाणेराव' में किया उस समय पं० श्रीरत्न विजयजी श्रादि ५० यति साथ में थे परन्तु नवितव्यता अत्यन्त प्रबल होती है करोझो उपाय करने पर जी वह [ होनहार] किसी प्रकार टल नहीं सकती, जिस मनुष्य के लिये जितना कर्त्तव्य करना है वह होही जाता है, याने पर्युषणा में ऐसा मौका था पहा कि श्रीपूज्यजी के साथ श्रीरत्न विजयजी का अतर के बाबत चित्त उद्विग्न हो गया, यहाँ तक कि उस विषय में अत्यन्त वाद विवाद बढ़ गया, इससे रत्नविजयजी लाउपद सुदीहितीया के दिन 'श्रीप्रमोदरुचि' और 'धन विजयजी' श्रादि कई सुयोग्य यतियों को साथ लेकर ' नामोल' होते हुए शहर ' आहोर ' में आये और अपने गुरु श्री प्रमोद विजयजी को सब हाल कह सुनाया। जब गुरुमहाराज ने श्रीपूज्य को हित शिक्षा देने के लिये श्रीसंघ की संमति से पूर्व परंपराऽऽगत सूरिमंत्र देकर रत्नविजयजी को अत्यन्त महोत्सव के साथ संवत् १९२३ वैशाख सुदी ५ बुधवार के दिन ‘श्राचार्य' पदवी दी और उसी समय श्राहोर के ठाकुर साहव 'श्रीयशवन्तसिंह' जी ने श्रीपूज्य के योग्य ठमी, चामर, पालखी, सूरजमुखी आदि सामान लेट किया। और श्रीसंघ ने श्रीपूज्यजी को 'श्री विजयराजेन्दसूरिजी महाराज के नाम से प्रख्यात करना शुरू किया। श्रीपूज्य श्री विजयराजेन्प्रसूरिजी महाराज अपनी सुयोग्य यतिमएमली सहित ग्राम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
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