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________________ 316 जैन आगम : वनस्पति कोश P34 मेढाशिंगी के पर्यायवाची नाम हैं। लम्बाई में गढेदार नालियां होती हैं। मूल सूखने पर छाल (भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०४४३) पतली होकर आड़े बल में फट जाती है। इसका स्वाद अन्य भाषाओं में नाम साधारण कड़वा होता है। हि०-मेढा सिंगी। बम्बई-कंसेरी,मानचिंगी, मेंढल, (भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ०४४३, ४४४) मेससिंगी। म०-मेढ़ासिगी, मेरसगीं। मेवाङ-केसेरी अवधहावर। मध्यप्रदेश०-मेडासिंगी, मिल, दगी। वराहमंस ता०-कदालेट्टि । ते०-चित्तीवोदी। ले०-Dolichenbrone वराहमंस (वराहमांस) वाराहीकंद का गूदा Falcata (डोलीचेन्ब्रोन फेलकेटा)। ___ सू० १०/१२० वराहः |पुं। वाराहीकंदे। (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ६३६) वाराहीकंद के पर्यायवाची नामवाराहीकंदसंज्ञस्तु, पश्चिमे गृष्टिसंज्ञकः । वाराहीकंद एवान्यैश्चर्मकारालुको मतः ।।१७७।। अनूपसम्भवे देशे, वराह इव लोमवान् वाराहवदना गृष्टि वरदेव्यपि कथ्यते।।१७८ ।। वाराही कंद को पश्चिम देश में गृष्टि कहते हैं और कुछ लोग चर्मकारालुक कहते हैं। अनूप (जलप्रायः) देश में यह सअर के वालों की तरह कठिन रोम से यक्त कंद वाला होता है। इसके वाराहवदना, गृष्टि, वरदा ये सब नाम हैं। 382. Gymnema sylvestre R.Br. (पानिटक) (भावनिगुडूच्यादिवर्ग०पृ०३८७) अन्य भाषाओं में नामउत्पत्ति स्थान-यह वनस्पति राजस्थान, बुंदेल हिo-वाराहीकंद, गैठी। म०-डुक्करकंद, खंड, बिहार, मध्य प्रदेश, बरार, कोंकण, दक्षिण, मैसूर कडूकरांदा । गु०-डुक्करकंद, बणा बेल । बं०-रतालु । और मद्रास प्रेसिडेंसी में पैदा होती है। ले०-Dioscorea bulbifera linn (डायोसकोरिआ (धन्व०वनौ० विशेषांक भाग ५ पृ० ४३६) बल्बिफेरा-लिन) Fam. Dioscoreaceae (डायोस्कोरिएसी)। विवरण-इसकी लता चक्रारोही, पतले कांड की, उत्पत्ति स्थान-यह दून और सहारनपुर के वनों काष्ठमय, रोमश तथा बहुत फैली हुई होती है। पत्ते में ५ हजार फीट की ऊंचाई तक तथा सभी स्थानों में अभिमुख अंडाकार-आयताकार या लट्वाकार, कभी-कभी पाया जाता है। हृदयवत्, १ से २ इंच लम्बे, कभी-कभी ३ इंच लम्बे, विवरण-इसकी लता आरोही तथा वामावर्त होती नोकदार, एवं मृदुरोमश होते हैं। पुष्प सूक्ष्म, पीले, है। कांड चिकने तथा पत्रकोणों में लगभग १ इंच व्यास समस्थ, मूर्धजक्रम में निकले हुए एवं आभ्यन्तर कोश की कंद सदृश रचनाएं होती हैं। पत्ते साधारण एकान्तर घण्टिकाकार-चक्राकार होते हैं। फली २ से ३ इंच लम्बी, २.५ से ६ इंच लम्बे, पौने दो से ४ इंच चौड़े, पतले, .२ से .३ इंच मोटी, कठोर, भालाकार क्रमशः नोकीली पुच्छाकार, लम्बे नोकवाले तथा आधार पर तांबूलाकार होती है। दो में से प्रायः एक फली का विकास नहीं होता। होते हैं। इनके आधारीय खंड गोल और पत्राधार पर ६ इसके सर्वांग में दूध होता है । मूल १ से १.२५ इंच मोटा शिराएं होती हैं। नरपुष्पों की मंजरियां नीचे की ओर तथा बाहर से मुलायम एवं उस पर बीच-बीच में सीधी . लटकी हुई २ से ४ इंच लम्बी और प्रायः पत्रकोणों में क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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