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________________ जैन आगम : वनस्पति कोश 297 तक, दिन में कुछ घंटे तक विकसत होने वाले, पुष्प वृन्त झाड़ी, खण्डहर, सड़क के किनारे आदि गन्दी जमीन ३/४ से १ इंच लम्बा। फली शरद ऋतु में अनेक बीज में उत्पन्न होती है। शिमले में ५००० फीट ऊंची भूमि पर वाली होती है। भी पाई जाती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ०२४८,२४६) विवरण-सत्यानाशी क्षुपजाति की वनस्पति २ से ४ फीट तक ऊंची, अनेक शाखाओं से युक्त, सघन होती सुहिरणिया कुसुम है। इसके क्षुप, पत्ते, फल इत्यादि पर तीक्ष्ण कांटे होते सहिरणिया (सहिरणिका) सत्यानाशी. सवर्णक्षीरी हैं। डण्डी और पत्तों को तोड़ने से पीला दूध निकलता है। पत्ते 3 से ७ इंच तक लम्बे. कटे हए. तीक्ष्ण कंटीले रा०२८ जीवा०३/२८१ प०१७/१२७ विवरण-प्रस्तुत प्रकरण में पीले रंग की उपमा के नोक वाले, सफेद धब्बों से युक्त तथा रेशेवाले होते हैं। लिए सुहिरणिया कुसुम शब्द का प्रयोग हुआ है। फूल कटोरीनुमा, चमकीले, पीले रंग के आते हैं और वे सत्यानाशी के पुष्प पीले होते हैं और दूध भी पीला होता खुले मुख होते हैं । फल लम्बे तथा गोल होते हैं और उनसे है। हिरण्य का पर्यायवाची नाम सुवर्ण है। हिरण्य के पूर्व राई के समान काले रंग के बीज निकलते हैं। वैशाख, ज्येष्ठ की गरमी से इसका क्षप सूख कर नष्ट हो जाता सुशब्द अतिरिक्त है। सुवर्णा (णी) |स्त्री। सुवर्णक्षी-म्। है। फल के सूखने पर बीज भूमि पर गिर जाते हैं और (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ०११४१) वे ही शरद ऋतु में अंकुरित हो पौधे के रूप में परिणत सुवर्णा के पर्यायवाची नाम हो जाते हैं स्वर्णक्षीरी स्वर्णदुग्धा, स्वर्णाह्वा रुक्मिणी तथा ___ (भाव०नि० हरीतक्यादिवर्ग पृ०६६) सुवर्णा हेमदुग्धी च, हेमक्षीरी च काञ्चनी।।५५ ।। सत्यानाशी का पौधा मूल अमेरीका के उष्ण स्वर्णक्षीरी स्वर्णदुग्धा, स्वर्णावा, रुक्मिणी, सुवर्णा कटिबन्ध प्रदेश का है। ऐसी वनस्पतिशास्त्रियों की हेमदुग्धी, हेमक्षीरी तथा काञ्चनी ये सब भड़भाड़ मान्यता है। वर्तमान में भारत के उष्ण कटिबंध प्रदेश में (स्वर्णक्षीरी) के नाम हैं। नैसर्गिक हो गया है। यह भारत के सब प्रदेश और ग्रामों (राज०नि०५/५५ पृ०११५) में पाया जाता है। जहां यह होता है वहां चारों ओर फैल अन्य भाषाओं में नाम जाता है। यदि किसी खेत में प्रवेश हो गया तो उसे उजाड़ हि०-सत्यानाशी, पीलाधतूरा, फरंगी धतरा, देता है। इस हेतु से इसे सत्यानाशी और उजरकांटा उजरकांटा, सियालकांटा, भड़भांड, चोक। बं० संज्ञा दी है। सोनाखिरणी, शियालकांटा, बड़ो सियालकांटा। म० बीज कृष्णवर्ण, सरसों से कुछ बड़े और एक फल कांटे धोत्रा। गु०-दारुडी। क०-अरसिन उन्मत्त। में अनेक होते हैं। बीजों में से तेल निकलता है। वह ताo-ब्रह्मदण्डु, कुडियोट्टि, कुरुक्कुमचेडि। ते० औषधिरूप से और जलाने के लिये काम में लिया जाता ब्रह्मदण्डीचेटु । पं०-कण्डियारी, स्यालकांटा, भटमिल, है। जलाने पर धुआं बहुत होता है। इसकी छाल नरम सत्यनशा, भेरबण्ड, भटकटेया। सन्ता० रसपूर्ण और पीले रंग की पीले दूध वाली। दूध धीरे-धीरे गोकुहल जानम । पश्चिमो०-भरभुरवा, कडवहकण्टेला। गाढ़ा, भूरा होकर काला और कठोर बन जाता है। वास मला०-पोन्नुम्मत्तम्। उडि०- कांटाकुशम। अं उग्र, स्वाद कडवा होता है। सत्यानाशी के क्षुपशीत ऋतु Mexican poppy (मेक्सिकन पॉप्पी) Prickly poppy (प्रिक्ली की शुरूआत में खूब पैदा होती है। फूलने और फलने पॉप्पी)। ले०-Argemone Mexicana (आर्जिमोन् का समय फूल के लिए दिसम्बर से फरवरी और फल मेक्सिकाना)। मार्च से मई तक आते हैं। दूसरी श्वेत पुष्पवाली होती है उत्पत्ति स्थान-यह सब प्रान्तों के खेत, मैदान, जो कि बहुत कम प्राप्त होती है। माउण्ट आबू और यहां पर भी देखी गई है। श्वेतपुष्प की सत्यानाशी से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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