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________________ 144 जैन आगम : वनस्पति कोश तगरपादुका, शुमियो, असारून । म०-तगर गण्ठोडा, तगरमूला । गु०-तगरगण्ठोडा । फा०-असारून । उ१०रिशवाल। पं०-बालमुश्क, मुश्कवली। उत्कल०पाणिफलरा। गौo-तगर पादुका, गिउलीछीप । नै०चम्मा। पिण्डीतगर इति कोंको प्रसिद्धम् । अंo-Indian Valerian Rhiyzme (इन्डियन बेलेरियन हाइजोम)। ले०Valeriana wallichii DC (वॅलेरिआना वालिशिआई) Fam.Valerianaceae (वॅलेरिअॅनेसी)। पुष्य मुच्छ होते हैं। इसके नवीन पत्र किनारे कटे हुए कंगूरेदार और अनीदार होते हैं। इन पत्रों के पुराने होने पर इनके कंगूरे गायब हो जाते हैं। चैत, वैशाख में तथा दक्षिण में कहीं-कहीं कार्तिक और मार्गशीर्ष में इसके वृक्ष सुपल्लवित और सुपुष्पित बड़े ही मनोहर दिखाई देते हैं। पुष्प छोटे-छोटे नीलापन लिये श्वेत वर्ण के और किसी-किसी में बैंगनी रंग के गुच्छों में निकलते हैं। ये पुष्प प्रायः ५ पंखुड़ी वाले, बाहर से ढके हुये होते हैं। इनमें प्रायः चमेली के पुष्पों जैसी सुगन्ध आती है किन्तु काली अरणी के पुष्पों की गंध विशेष प्रिय नहीं होती। इसके पत्तों का डंठल आधे इंच से २ इंच तक लम्बी होती है। पत्तों को मसलने से नीला या गहरे हरे वर्ण का चिपचिपा सा रस निकलता है। यह गंध में उग्र, स्वाद में चरपरा, कुछ खारापन लिए कडुवा सा लगता है। फल मकोय के फल जैसे झुमकों में लगते हैं। कच्ची दशा में हरे और पकने पर पीतवर्ण या खाकी रंग में होकर अंत में काले पड़ जाते हैं। ये फल वर्षा के प्रारंभ में झड जाते हैं। बीज ताजी अवस्था में श्वेत वर्ण के और फिर धूसर वर्ण के हो जाते हैं। फल के अंदर के बीज चार भागों में विभक्त रहते हैं। किसी वृक्ष के फल में से ४ ही बीज निकलते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० २३५,२३६) पुषमुहर VERSA तगर रा०३० जीवा०३/२८३ साय तगर के पर्यायवाची नाम उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप हिमालय पहाड़ के तगरं कुटिलं वर्क, विननं कुञ्चितं नतम्। साधारण भाग में काश्मीर से भूटान तक ४ से १२ हजार शठञ्च नहुषाख्यञ्च, दद्रुहस्तञ्च वर्हणम् ।।१४१।। फीट की ऊंचाई पर तथा खासिया के पहाड़ों पर ४ से ६ हजार फीट की ऊंचाई पर बहत पाये जाते हैं। कालानसारकं क्षत्रं, दीनं जिह्म मुनीन्दुधा ।।१४२।। विवरण-इसका क्षुप किंचित् रोमश एवं बहुवर्षायु तगर, कुटिल, वक्र, विनम्र, कुञ्चित, नत, शठ, होता है । मूलस्तंभ मोटा अधोगामी, मोटे तंतुओं से युक्त नहुष, दद्रुहस्त, वर्हण, पिण्डीतगर, पार्थिव, राजहर्षण, एवं जमीन में दिगन्तसम फैला रहता है। काण्ड १५.४५ कालानुसारक, क्षत्र, दीन तथा जिह्म ये सब सतरह नाम से.मी. ऊंचे एवं प्रायः गुच्छेदार होते हैं। पत्ते आधारीय, तगर के हैं। (राजनि०१०/१४१, १४२ पृ०३२५,३२६) पत्र प्रायः २.५ से ६.५ से.मी. व्यास में लम्बे नाल से युक्त, अन्य भाषाओं में नाम लट्वाकार, आधार पर गहरे ताम्बूलाकार तीक्ष्णाग्र तथा हि०-तगर, सुगंधबाला, मुश्कबाला। बं०- धारयुक्त दन्तुर या लहरदार होते हैं। कांडपत्र संख्या में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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