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________________ 102 अन्य भाषाओं में नाम हि०- गेहूँ । बं०-गम । म०-- गहूं। गु० - घेऊ, धउ । क० - गोधी । ते० - गोदुमेलु । फा०- गंदुम | - गोदूमै । अ० - हिन्ता । अंo - Wheat (ह्वीट)। ले० - Triticum Sativum Lam (ट्राइटिकम् सटाइवम् ) Fam. Gramineae (ग्रेमिनी) । ता० उत्पत्ति स्थान - अनेक प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है। संसार भर में अन्न के लिए इसकी उपज की जाती है। यह मैसूर, मद्रास में कम होता है। उत्तरभारत में यह अधिक होता है । विवरण- इसके पौधे जव के समान होते हैं। यद्यपि इसकी ३-४ जातियां होती हैं। तथापि उपर्युक्त जाति ही अधिक बोई जाती है। इसके अनेक प्रकार होते हैं। इनमें भी शूकयुक्त या विहीन भेद पाये जाते हैं। कडा, मुलायम, श्वेत या लाल आदि दाने के भेद होते हैं। खाने के लिए बड़ा दाने वाले तथा स्टार्च के लिए मुलायम गेहूं काम लाया जाता है। महागोधूम, मधूली और दीर्घगोधूम इन भेदों से यह तीन प्रकार का होता है। महागोधूम - यह भारत के पश्चिम के देशों (पंजाब आदि) से आता है। मधूली- यह बड़ा गेहूं की अपेक्षा कुछ छोटा होता है और मध्य देश ( आगरा मथुरा आदि) में उत्पन्न होता है । दीर्घगोधूम - यह शूक ( ढूंड ) रहित होता है तथा इसे कहीं-कहीं नन्दीमुख भी कहते हैं । (भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ० ६४१, ६४२ ) गोवल्ली गोवल्ली ( ) गोपाल काकड़ी प० १/४०/४ विमर्श - प्रस्तुत, प्रकरण में गोवल्लीशब्द वल्लीवर्ग के अन्तर्गत है । पाठान्तर में गोवाली शब्द है । वनस्पति शास्त्र में गोवाली का अर्थ गोपालकाकडी है। जो एक प्रकार की बेल है। इसलिए यहां गोवाली शब्द ग्रहण कर रहे हैं। गोवाली (गोपाली) गोपाल काकड़ी । Jain Education International जैन आगम वनस्पति कोश गोपाली के पर्यायवाची नाम गोपालकर्कटी वन्या, गोपकर्कटिका तथा । क्षुद्रेर्वारु: क्षुद्रफला, गोपाली क्षुद्रचिर्भटा ||१०४ ।। गोपालकर्कटी, वन्या, गोपकर्कटिका, क्षुद्रा, एर्वारु, क्षुद्रफल, गोपाली तथा क्षुद्रचिर्भटा ये सब गोपाल कर्कटी के नाम (राज० नि० ३ / १०४ पृ० ५०) अन्य भाषाओं में नाम हि० - कचरी, कचरिया, सेंध, पेंहटा भकुर, गोरख ककड़ी, गुराडी । मा० - काचरी, सेंध | पं० - चिम्भड | म० - चिभूड, रोंराड, रौंदणी, टकमके । गु० - चिभडो कोटीर्वा, गोठभडी, काचरां । बं० - वनगोमुक, कुन्दुरुकी, काकुड़ फुटी । अं० - Cucumber Pubescent (ककुम्बर प्युबेसेंट) ले० - Cucumis pubescent (क्युक्युमिस प्युबेसेंट) C. Maculata (क्युक्युमिस मेक्युलाटा) । उत्पत्ति स्थान- यह प्रायः समस्त भारतवर्ष के खेतों और पहाड़ी स्थानों में होती है। विशेषतः राजपूताना उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि प्रदेशों में अधिक पैदा होती है। विवरण- इसकी बेल खीरे की बेल जैसी किन्तु उससे लंबाई में छोटी, लगभग ५ या ६ हाथ लंबी होती है। यह वर्षाकाल में प्रायः स्वयं पैदा होती है। कहीं-कहीं बोई भी जाती है। इसकी शाखायें खीरे की शाखा जैसी ही पतली तथा कांटेदार रोवों से व्याप्त होती है। पत्ते छोटे, ४ इंच तक लंबे और ६ इंच तक चौड़े, नरम या कोमल होते हैं। आकार प्रकार में ककड़ी पत्र जैसे ही होते हैं। फूल भी ककड़ी के फूल जैसे ही किन्तु कुछ छोटे, पीले रंग के होते हैं । प्रायः भाद्रपद मास में छोटे लंबेगोल या अंडाकार फल लगते हैं। १ से २.५ इंच लंबे, कोई-कोई इससे भी बड़े ४ या ५ अंगुल तक लंबे होते हैं । इन फलों को ही कचरी कहते हैं। बीज खीरे के बीज जैसे किन्तु अपेक्षाकृत छोटे होते । पक्के बीज का छिलका कुछ काला सा हो जाता है और अंदर की गिरी ताश्वेतरंग की होती है। कच्चे बीज बहुत कडवे होते हैं किन्तु पकने पर कुछ खट्टे हो जाते हैं। कचरी की बड़ी जाति को या बड़े-बड़े फल वाली कचरिया को गोपालककड़ी कहते हैं। यह ४ या ५ अंगुल तक लंबी, कच्ची दशा में कडुवी और पकने पर कुछ खटास स्वाद वाली होती है। मरुदेश में (मारवाड) में यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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