SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 88 जैन आगम : वनस्पति कोश कुहक दोनों शब्द एक अर्थ के ही वाचक हैं। इससे लगता में बीजू केले होते हैं। इसमें बीज होते हुए भी मिठास है कुहुण का संस्कृतरूप कुहुक होना चाहिए। अच्छा होता है। जंगली बीजदार केलों में मिठास नहीं कुहुकः पुं। ग्रन्थिपर्णवृक्षे (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० ३०२) होता। मर्त्य या मर्त्यवान जाति के केले का गूदा मक्खन देखें कुहग शब्द। जैसा और सुस्वादु होता है। चंपककेला कुछ अम्लरसयुक्त सुगंधित एवं ऊपर कुछ पीतवर्ण होता है। केतकि कोकनीकेला बड़ा सुस्वादु होता है। इसके गूदे को सखाकर भी बेचते हैं। ब्रह्मप्रदेश में भी स्वर्ण वर्ण के अनेक केतकि (केतकी) केवड़ा जीवा०३/२८३ प्रकार के केले होते हैं । यवद्वीप में विचित्र प्रकार के केले देखें केयइ शब्द। होते हैं। एक पिस्यांटण्डक नामक केला २ फुट लंबा होता केतगि पश्चिमी भारतीयद्वीप में एक प्रकार का क्षुद्राकार केतगि (केतकी) केवडा रा० ३० बेंगनी रंग का केला होता है। अमेरिका में ओटंको केला देखें केयइ शब्द। अत्युत्तम होता है। डाल का पका होने पर इसकी सुगंध सबको उन्मत्त सा बना देती है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य केदकंदली प्रदेशों में कई प्रकार के केले होते हैं। केदकंदली (केदकंदली) केदकेला उत्त०३६/६७ एक केला ऐसा होता है जिसके एक ही फूल होता है, वह भी बाहर नहीं कांड के भीतर ही होता है और कन्दली (स्त्री) कदली। पद्म बीज। पकता है। पूरा पक जाने पर कांड फट जाता है। यह (शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ०२४) इतना बड़ा होता है कि एक ही फल से चार मनुष्यों का केला के भेद-राजनिघंटु पृ० ३४७.३४८ में केला, पेट भर जाता है। काष्ठकदली, गिरिकदली, सुवर्णकदली के पर्यायवाची (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २६६) नाम तथा गुण धर्म हैं। विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में केदकंदली शब्द कन्द ___कैयदेवनिघंटु पृ०५६ में सुगंधकदली, कृष्णकदली नामों के अन्तर्गत है इसलिए ऊपर वर्णित केलों के भेदों और शैलकदली को उत्तरोत्तर निंदित कहा है। में अंतिम भेद केदकंदली होना चाहिए। भावप्रकाश निघंटु पृ० ५५७ में माणिक्यकदली, मयंकदली, अमृतकदली तथा चंपककदली इत्यादि केले बहुत से भेद हैं ऐसा लिखा है। केयइ शालिग्रामनिघंटु पृ० ४२२ से ४२४ में, कदलीकद, केयइ (केतकी) केवड़ा। भ० २२/१ प० १/३७/५ अरण्यकदली, काष्ठकदली, सुवर्णकदली महेंद्रकदली केतकी के पर्यायवाची नामकृष्णकदली आदि भेदों के गुण वर्णित हैं। केतकी कंबुको ज्ञेयः, सूचीपुष्पो हलीमकः । वनौषधि विशेषांक में वर्णन इस प्रकार मिलता है- तृणशून्यं, करतृणं, सुगन्धः क्रकचत्वचः: ।/१४८३।। आजकल तो विभिन्न स्थानों में अनेक प्रकार के केतकी, कंबुक, सूचीपुष्प, हलीमक, तृणशून्य, केले पाए जाते हैं। आसाम में आठिया, भीमकला आदि करतृण, सुगंध, क्रकचत्वच ये केवड़ा के नाम हैं। १५ प्रकार का केला प्रचलित है। बंगाल में रामरंभा, (कैयदेव०नि० श्लो० १४८३ ओषधिवर्ग पृ० ६२०) मालभोग, उक्त भावप्रकाश के मर्त्य, चम्पक आदि कई अन्य भाषाओं में नामजाति के केले होते हैं। इसके अतिरिक्त इसी बंग प्रदेश हि०-केवडो। बं०-केया। म०-केवड़ा। गु०-केवडो। ते०-मुगली पुवु। ताo-तालहै। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy