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________________ 82 जैन आगम : वनस्पति कोश की तरफ पंकेसर में बदल जाते हैं। फल स्पंज सदश होता है, जो जल के अंदर पक्व होकर फट जाता है, जिसमें से बीज बाहर निकल कर जल पर तैरते हैं। बीज छोटे कच्चे लाल एवं पकने पर काले होते हैं। इन्हें भेंट या बेरा कहते हैं। बिहार और बंगाल में इनका लावा बनाकर उसके लडडू बनाते हैं। उनको यहां रामदाने के लड्डू कहते हैं। (भाव० नि० पृ० ४८४) कुमुद के वर्ण के अनुसार चार भेद पाए जाते हैं, पीतवर्ण का भेद भी विदेशों में पाया जाता है। कुमुद कुमुद (कुमुद) चंद्रविकासी श्वेत कमल जीवा० ३१२८६ प० ११४६; १७ ॥१२८. कुमुद के पर्यायवाची नाम श्वेतकुवलयं प्रोक्तं, कुमुदं कैरवं तथा। श्वेत कुवलय, कुमुद, कैरव ये सब कुमुद के संस्कृत नाम हैं। इसे लोक में कमोदनी कहते हैं। (भाव० नि० पुष्पवर्ग पृ० ४८३) कमल सूर्यविकासी तथा कुमुद प्रायः चंद्रविकासी होते हैं। (भाव० नि० पृ० ४७६) चंद्रविकासी छोटे कमल या कुमुदनी होती है जो सायं रात्रि में चंद्रोदय पर खिलती और प्रातः बन्द हो जाती है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० १३८) अन्य भाषाओं में नाम हि०-कुमुद, कमोदनी, कोंई, कुईं । बं०-शालुक, सुदी। गु०-पोयणु। म०-कमोद। फा०-नीलूफर। अ०-अर्नबुल्मा। अं0-Water lily (वाटर लीली)। ले०-Nymphaea alba linn (निम्फिआ अल्बा लिन)। कुमुय कुमुय (कुमुद) चंद्र विकासी श्वेत कमल (रा० २६ जीवा० ३/२८२) देखें कुमुद शब्द । ... कुरय कुरय (कुरका) सालइ वृक्ष प १/४७ कुरका |स्त्री। सल्लकीवृक्षे । (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० २६०) 26 कुरुकुंद कुरुकुंद भ० २१/१६ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में कुरुकुंद शब्द है। प्रज्ञापना (१/४२/२) में इसी के स्थान पर कुरुविंद शब्द है। कुरुकुंद शब्द का वनस्पति शास्त्र में अर्थ नहीं उत्पत्ति स्थान-यह काश्मीर में जलाशयों में पाया। मिलता। इसलिए यहां कुरुविंद शब्द ही ग्रहण कर रहे जाता है। विवरण-इसका जलीय क्षुप बहुवर्षायु होता है। कुरुविंद (कुरुविंद) मोथा इसकी जड़ें जलाशय की सतह में फैलती है। पत्ते गोल, देखें कुरुविंद शब्द। हृदयाकार चमकीले तथा जल की सतह पर तैरते रहते हैं। पत्रनाल १० फुट तक लंबा होता है तथा फलक के कुरुविंद मध्य में जुटा रहता है। पुष्प श्वेत २ से ५ इंच व्यास में कुरुविंद (कुरुविंद) मोथा प० १/४२/२ आते हैं। बाह्यदल ४, बाहर से कुछ हरिताभ तथा अंदर से श्वेत होते हैं। आभ्यन्तर दल करीब १० होते हैं जो अंदर कुरुविन्दः |पुं० । कुरुक्षेत्रजव्रीहिभेदे, कुल्माषे अयं कुधान्यवर्गीयः, कुलत्थ । भद्रमुस्तायाम्, मुस्तायाम्, माषे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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