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________________ ( 71 ) फलतः कृष्ण, नील, कापोत लेश्यायें भी दुःखों के धक्के देने लग जाती है। हरिभद्र सूरि ने कहा है तल्लेश्य-तत्स्थशुभपरिणाम विशेष इति भावना । -अणुओ० हारिभद्रीय टीका पृ० १६ अर्थात् प्रशस्त लेश्या-शुभ परिणाम विशेष को भावना कहते हैं। आप्त के वचन को आगम कहते हैं। मरुदेवी माता हाथी के पीठ पर चढी हुई थी। प्रशश्त अध्यवसाय-विशुद्धमान लेश्या में-शुभ परिणाम में सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। क्षपक श्रेणी की प्राप्ति कर प्रशस्त लेश्या में केवल ज्ञान-केवल दर्शन को प्राप्त किया। कहा है पढमाइचउ छलेसा। -पंच संग्रह ( दि० ) अधि २ । गा १८७ पूर्वार्ध अर्थात् प्रथम गुणस्थान से चौथे गुकस्थान तक छओं लेश्याए होती है। श्रेणिक राजा के नरकायु का बंध होने के बाद प्रशस्त लेश्या-शुभ परिणाम आदि से अनंतानुबंधीय चतुष्क तथा मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व मोहनीय की प्रकृति का क्षयकर क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त किया। कालान्तर में पानी बरसने के कारण रूप पुद्गल परिणाम को उदक गर्भ कहते हैं। मार्गशीर्ष और पौष मास से लेकर वैशाख तक के महिनों में दिखाई देने वाला सन्ध्या का रंग व मेघ का उत्पाद आदि 'उदक-गर्भ' के निशान है। कहा है पौषे समार्गशीर्ष सन्ध्या रागोऽम्बुदा सपरिवेष । नात्यर्थ मार्गशिरे शीत पौषेऽतिहिमपातः ।। अर्थात् मार्गशीर्ष ( अगहन ) और पौष महिने में सन्ध्या का रंग हो और कुण्डाला युक्त में होना और इस महिने में ठण्ड न पड़े और पौष महिने में बर्फ बहुत पड़े, ये सब उदक गर्भ के निशान है। १. भग० श २ । उ ५ । सू८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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