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________________ ५५८ लेश्या-कोश विचार जब वाद का रूप ग्रहण कर लेता है तो अनेक प्रकार के तर्क उपस्थित हो जाते हैं। मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास को नकारने का अर्थ होता किसी को सम्यक्त्व प्राप्ति का निषेध । तथ्य यह है कि आत्म-प्रदेशों की उज्ज्वलता के बिना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता और आध्यात्मिक विकास के बिना आत्म प्रदेशों की उज्ज्वलता नहीं होती। आगमों में असौच्चा केली का प्रसंग आता है। कोई मिथ्यात्वी धर्म को सुने बिना ही निरवद्य क्रिया करते हुए सम्यक्त्व और चारित्र को प्राप्त कर केवली बन जाता है, उसे असौच्चा केवली कहते हैं। यदि मिथ्यात्वी का आव्यात्मिक विकास नहीं होगा तो आसौच्चा केवली का प्रसंग ही मिथ्या हो जाएगा। विपाक सूत्र तथा ज्ञाता में भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जहां मिथ्यात्व अवस्था में सुपात्रदान आदि के द्वारा परित संसार करके मनुष्य का आयु बान्धा गया है। तामली तापस का प्रसंग तो इस तथ्य को और अधिक पुष्ट कर देता है। .. ___ आत्म उज्ज्वता की तरतम्यता के आधार पर गुण स्थानों का निरूपण किया गया। गुणस्थान का अर्थ है-आत्मा की शुद्धि । मिथ्यात्वी को पहले गुणस्थान में रखा गया है। समवायांग में कहा गया है-कम्मविसोहिमग्गणपडुच्च चउद्दस जीवट ठाणा पण्णत्ता-कर्म विशुद्धि के तारतम्य की अपेक्षा से चौदह जीव स्थान ( गुणस्थान ) होते हैं। मिथ्यात्वी भी जब प्रथम गुणस्थान का अधिकारी है तब उसका आध्यात्मिक विकास तो स्वतः सिद्ध है। उसे नकारने या अस्वीकारने का कोई कारण नहीं रह जाता। इसी प्रकार नन्दी सूत्र में भी कहा गया है-'सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतमोभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सोडवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा-ऐसा एक भी जीव नहीं है जिसके सूक्ष्मतम आंशिक उज्ज्वलता नहीं होती। सूक्ष्मतम उज्ज्वलता के अभाव में जीव अपने मूल्य स्वभाव को छोड़कर अजीव बन जाता । जीव कभी अजीव नहीं होता इसका एकमात्र कारण है उसकी सूक्ष्मतम आंशिक उज्ज्वलता। आगमों में अनेक स्थानों पर ऐसे प्रसंग विकीर्ण हैं जो मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास की पुष्टि करते हैं। फिर भी एक विचारधारा इसे स्वीकार नहीं करती। लेखक श्री श्रीचन्द चोरड़िया ने आगम तथा आगमेतर ग्रन्थों का मन्थन कर पक्ष-विपक्ष के उन अनेक प्रमाणों को एक साथ उपस्थित कर दिया है ताकि जैन तत्व दर्शन के अध्येताओं के लिए इस सम्बन्ध में निर्णायक अध्ययन की सुविधा हो सके । सामग्री व प्रस्तुतीकरण में लेखक का साम्प्रदायिक अनाग्रह एवं वैचारिक उदारता परिलक्षित होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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