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________________ ( 66 ) जैनागमों का प्राचीनतम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में समवायांग सूत्र में मिलता है। यहाँ पूर्वो की संख्या चौदह तथा अंगों की संख्या बारह बताई गई है। कृत्रिम नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं, जन्मजाति नपुसक सिद्ध नहीं होते हैं । आहार-शरीर और इन्द्रिय-ये तीन पर्याप्तियां प्रत्येक जीव पूर्ण करता है। इनको पूर्ण करके ही जीव अगले भव की आयु का बंध कर सकता है। पर्याप्त जीव दो प्रकार के हैं-१. लब्धि पर्याप्त और २. करण पर्याप्त । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को अभी पूर्ण नहीं किया किन्तु आगे अवश्य पूरी करेगा वह लब्धि की अपेक्षा से लब्धि पर्याप्तक कहा जाता है। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूरी करली है वह करण पर्याप्त है। अपर्याप्त जीव भी दो प्रकार के हैं-१ लब्धि अपर्याप्त और २ करण अपर्याप्त । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी नहीं की और आगे करेगा भी नहीं अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में ही मरेगा वह लब्धि अपर्याप्त है जिसने स्वयोग्य पर्याप्तिओं को पूरी नहीं किया किन्तु आगे पूरा करेगा वह करण से अपर्याप्त है। विशिष्ट तप से प्राप्त लब्धि विशेष से किसी-किसी पुरष को तेजोलेश्या निकालने की लब्धि प्राप्त हो जाती है उसका हेतु भी तजस शरीर है। लेश्या-जिसके कारण आत्मा कर्मों के साथ चिपकती है वह लेश्या हैं। कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से आत्मा में होने वाले शुभाशुभ परिणाम लेश्या है आचार्य तुलसी ने कहा है कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्यैव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ।। -जैदीपि० प्रकाश ४ अर्थात् कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से आत्मा में होने वाले शुभाशुभ परिणाम लेश्या है। जैसे-स्फटिक रत्न में अपना कोई काला, पीला, नीला आदि रंग नहीं होता है, वह स्वच्छ होता है। परन्तु उसके सानिध्य में जैसे रंग की वस्तु हो जाती है, वह उसी रंग का हो जाता है। वैसे ही कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से आत्मा में जो शुभाशुभ परिणाम होते हैं, वह लेश्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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