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________________ ४७२ लेश्या - कोश अधिक हो, किन्तु अतीत के समय मिध्यादृष्टि जीव राशि से अधिक सम्भव नहीं है । अतः मिथ्यादृष्टि जीव राशि से अधिक सम्भव नहीं है । अतः मिथ्यादृष्टि जीव राशि समाप्त नहीं होती है और अतीत के सब समय समाप्त हो जाते हैं ४ कहा है धमाधम्माकासा तिण्णि वि तुल्लाणि होति थोवाणि । वड्ढीदु जीव-पोग्गल - कालागास अनंत गुणा ॥ - षट्० पु० ३ | पृ० २६ इक लेश्या पावै किहाँ ? वीतराग प्रमुख । बे लेश्या पावै कहाँ ? तीजी पंचमी नरक ॥१॥ त्रिण लेश्या पावै कहाँ ? बिकलेन्द्री प्रमुख लाभ । चउलेश्या पावै किहाँ ? सुर पृथ्वी अप आद ||२|| पंच लेश्या पावें कहाँ ? सन्नी अलद्भिया मांय । छ लेश्या पावै किहाँ ? सूरनर आदि कहाय ||३|| ए छहु लेश्या तणां, उत्तर का संक्षेप | बलि इक इकनां छै घणां, इहाँ न का प्रक्षेप ||४|| -झीणचरचा ढाल ६ । पृ० २५५ वीतराग में एक लेश्या ( शुक्ल ) मिलती है । तीसरी नारकी में कापोतनीललेश्या व पांचवीं नारकी में नील- कृष्णलेश्या मिलती है । विकलेन्द्रिय में कृष्ण, नील और कापोतलेश्या मिलती है । भवनपति व वाणव्यंतर देवों में कृष्ण, नील, कापोत व तेजोलेश्या मिलती है ( द्रव्य की अपेक्षा ) पृथ्वी - अपू - वनस्पति में प्रथम चार लेश्या है । संज्ञके अलब्धि में पद्मलेश्या को बाद होकर पांच लेश्या मिलती हैं । देवों में व मनुष्यों में व तिर्यंचों में छः लेश्या होती है । अस्तु आधुनिक विज्ञान में भी जीव के शरीर से किस वर्ण की आभा निकलती है, इसका अनुसंधान हो रहा है तथा इसके तत्कालीन विचारों के साथ वर्णों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा रहा है । ४. षट्० पु० ३ । पृ० २७-३० टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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