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________________ ४२४ लेश्या-कोश ९९ लेश्या सम्बन्धी फुटकर पाठ'६६ १ लेश्या और भाव उदै तो आठ कर्म पुद्गल अछ रे, जीव उदैनिपन रा बोल तेतीस रे । गति च्यार छ काय भाव लेश्या छहू रे, -झीणीचर्चा ढाल १६ । गाथा २ आठ कर्मों का उदय पुद्गल है। उदय निष्पन्न भाव जीव है। उसके तैतीस बोल है। चार गति, छः काय, छः भावलेश्याए आदि हैं x x x । लेश्या और भाव उदय भाव रा तेतीस बोलां में, शुभ जोग लेश्या आहार। . तेहिज खयोपशम-भाव मांहि आवै छै, तिण सू बिहू ओलखाया तिण वार रे । -झीणीचर्चा ढाल १३ । गा ७२ औदयिक भाव के तैतीस बोलों में शुभयोग, लेश्या और आहारता-ये बतलाये गये हैं। उनका प्रतिपादन क्षयोपशमिक में भाव में भी हुआ है। इस दृष्टि से इन पद्यों में दोनों को समझाया गया है। कृष्ण, नील और कापोत—ये तीन अधर्म लेश्याए हैं और तेज, पद्म और शुक्ल-ये तीन अधर्म लेश्याए हैं । निष्कर्म यह है कि आत्मा के भले और बुरे अध्यवसाय होने का मूल कारण मोह का अभाव या भाव है। कृष्णादि पुद्गल द्रव्य भले-बुरे अध्यवसायों के सहकारी कारण बनते हैं। मात्र काले, नीले आदि पुदगलों से ही आत्मा के परिणाम बूरे-भले नहीं बनते । केवल पौद्गलिक विचारों के अनुरूप ही चैतसिक विचार नहीं बनते । मोह का भाव-अभाव तथा पौद्गलिक विचार-इन दोनों के कारण आत्मा के भले-बूरे परिणाम बनते हैं। १. उत्तरज्झ यणाणि अ ३४ । गा० ५६, ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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