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________________ लेश्या-कोश ४२१ संहार - विक्षेप - सहस्रकोटी स्तिष्ठति जीवाः प्रचरन्ति चान्ये । प्रजाविसर्गस्य च पारिमाण्यं वापीसहस्राणि बहूनि दैत्य ॥ वाप्यः पुनर्योजनविस्तृतास्ताः क्रोशं च गंभीरतयाऽवगाढाः । आयामतः पंचशताश्च सर्वाः प्रत्येकशो योजनतः प्रवृद्धाः ॥ वाप्याजलं क्षिप्यति बालकोट्यात्वह्नासकृच्चाप्यथनद्वितीयम् । तासां क्षये विद्भि परं विसर्ग संहारमेकं च तथा प्रजानाम् ॥ -- महा० शा ० पर्व | अ २८० । श्लो ३०-३२ दैत्य ! प्रजाविसर्ग का परिमाण हजारों सनत्कुमार वृत्र को कहते हैं, "हे बावड़ी ( तालाब ) जितना होता है । यह बावड़ी एक योजन जितनी चौड़ी, एक कोश जितनी गहरी तथा पाँच सौ योजन जितनी लम्बी है तथा उत्तरोत्तर एक दूसरी से एक-एक योजन बड़ी है । अब यदि एक केशान ( बाल के किनारे ) से एक बावड़ी के जल को कोई दिनभर में एक ही बार उलीचे, दूसरी बार नहीं तो इस प्रकार उलीचने से उन सारी बावड़ियों का जल जितने समय में समाप्त हो सकता है, उतने ही समय में प्राणियों की सृष्टि और संहार के क्रम की समाप्ति हो सकती है ।" समय की यह कल्पना जैनों के व्यवहार पल्योपम समय से मिलतीजुलती है। जैन दर्शन के अनुसार परम कृष्णलेश्या वाले सप्तम पृथ्वी के नारकी जीव की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम की होती है । महाभारत के अनुसार कृष्णवर्ण वाले जीव अनेक प्रजादिसर्ग काल तक नरकवासी होते हैं । कृष्णस्य वर्णस्य गतिर्निकृष्टा स सज्जते नरके पच्यमानः | स्थानं तथा दुर्गतिभिस्तु तस्य प्रजाविसर्गान् सुबहून् वदन्ति ॥ - महा० शा ० पर्व । अ २८० | इलो ३७ कृष्णवर्ण की गति निकृष्ट होती है और वह अनेकों प्रजाविसर्ग ( कल्प ) काल तक नरक भोगता है । *६८२ अंगुत्तरनिकाय में— ६८२१ पूरणकाश्यप द्वारा प्रतिपादित भारत की अन्य प्राचीन श्रमण परम्पराओं में भी 'जाति' नाम से लेश्या से मिलती-जुलती मान्यताओं का वर्णन है । पूरणकाश्यप के अक्रियावाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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