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________________ लेश्या-कोश ४१५ मरण के समय यदि लेश्या अवस्थित रहे तो वह स्थितलेश्यमरण, मरण के समय में यदि लेश्या संक्लिश्यमान हो तो वह संक्लिष्टलेश्यमरण तथा मरण के समय में यदि लेश्या के पर्यायो की प्रतिसमय विशुद्धि हो रही हो तो वह वर्यवजातलेश्यमरण कहलाता है। मरण के समय में यदि लेश्या की अविशुद्धि नहीं हो रही हो तो वह असं क्लिष्टलेश्यमरण तथा यदि मरण के समय में लेश्या की विशुद्धि नहीं हो रही हो तो अपर्यवजातलेश्यमरण कहलाता है । लेश्या की अपेक्षा से बालमरण के तीन भेद होते हैं-स्थितलेश्य, संक्लिष्टलेश्य और पर्यवजातलेश्य बालमरण । ___ बालमरण के समय यदि जीव कृष्णादि लेश्या में अविशुद्ध रूप में अवस्थित रहे तो उसका वह मरण स्थितलेश्य बालमग्ण कहलाता है, यथा-कृष्णलेशी जीव मरण के समय कृष्ण लेश्या में अवस्थित रहकर कृष्णलेशी नारकी में उत्पन्न होता है । बालमरण के समय यदि जीव लेश्या में संक्लिश्यमान-कलुषित होता रहता है तो उसका वह मरण संक्लिष्टलेश्य बालमरण कहलाता है, यथा-नीलादिलेशी जीव मरण के समय लेश्यास्थानों में संक्लिश्यमान होते-होते कृष्णलेश्या में उत्पन्न होता है। बालमरण के समय यदि जीव की लेश्या के पर्याय विशुद्धि को प्राप्त हो रहे हों तो उसका वह मरण पर्यवजातलेश्य बालमरण कहलाता है, यथाकृष्णलेशी जीव मरण के समय लेश्या के पर्यायों में विशुद्धत्व को प्राप्त होता हुआ नील-कापोतादि लेश्या में उत्पन्न होता है। यद्यपि मूल सूत्र में पंडितमरण के भी स्थितलेश्य, असं क्लिष्टलेश्य तथा पर्यवजातलेश्य तीन भेद बताये गये हैं ; तथापि टीकाकार का कथन है कि पंडितमरण में लेश्या की संक्लिष्टता-अविशुद्धि सम्भव नहीं है, वहाँ असंक्लिष्टताविशुद्धि ही होती है तथा पर्यवजातलेश्य पंडितमरण में भी लेश्या के पर्यायों की विशुद्धि ही होती है। अतः वास्तव में लेश्या की अपेक्षा से पंडितमरण के दो ही भेद करने चाहिये। असंक्लिष्टलेश्य भेद को पर्यवजातलेश्य भेद में शामिल कर लेना चाहिए। यद्यपि मूल पाठ में बालपंडितमरण के भी स्थितलेश्य, असं क्लिष्टलेश्य तथा अपर्यवजातलेश्य तीन भेद किये गये हैं ; तथापि टीकाकार का कथन है कि बालपंडितमरण का एक स्थितलेश्य भेद ही करना चाहिये ; क्योंकि बालपंडितमरण के समय में न तो लेश्या की अविशुद्धि ही होती है और न विशुद्धि, कारण उसमें बालत्व और पंडित्व का सम्मिश्रण है । अतः वहाँ असं क्लिष्टलेश्य तथा अपर्यवजातलेश्य भेदों का निषेध किया गया है । सुधीजन इस पर गम्भीर चिन्तन करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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