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________________ ४०० लेश्या-कोश दिट्टी-दसण-णाणे-सण्ण-सरीरा य जोग-उवओगे। दव्वपएसा - पज्जव, अद्धा किं पुचि लोयंते ॥२॥ -भग० श १ । उ ६ । सू २१६-२२० । पृ० ४०३ लोक, अलोक, लोकान्त, अलोकान्त आदि शाश्वत भावों की तरह लेश्या भी शाश्वत भाव है। पहले भी है, पीछे भी है ; अनानुपूर्वी है, इनमें कोई क्रम नहीं है। रोहक अणगार के प्रश्न करने पर मुगों और अण्डे का उदाहरण देकर भगवान ने आगे-पीछे के प्रश्न को समझाया है। _ 'रोहा! से णं अंडए कओ?' 'भयवं! कुक्कुडीओ!' 'सा णं कुक्कुडी कओ ?' 'भंते ! अंडयाओ।' -भग० श १ । उ ६ । सू २१८ । पृ० ४०३ अण्डा कहाँ से आया ? मुर्गी से । मुर्गी कहाँ से आयी ? अण्डे से । दोनों पहले भी हैं, दोनों पीछे भी हैं। दोनों शाश्वत भाव हैं। दोनों अनानुपूर्वी हैं, आगे पीछे का क्रम नहीं है। लेश्या भी शाश्वत भाव है ; किसी अन्य शाश्वत भाव की अपेक्षा इसका पहिले पीछे का क्रम नहीं है । '९५ लेश्या और ध्यान९५.१ लेश्या और प्रशस्त ध्यान [ध्यान और लेश्या में गहरा अनुबंध है । · ध्यान अशुद्ध होता है तो लेश्या अशुद्ध हो जाती है, आभामंडल विकृत बन जाता है। ध्यान शुद्ध होता है तो लेश्या शुद्ध हो जाती है। आभामंडल स्वस्थ और निर्मल बन जाता है। __ ध्यान और लेश्या के विशुद्धिकरण से आत्मा शुद्ध बनती है। उपाध्याय विनयविजयजी ने शान्तसुधारस में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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