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________________ ( 51 ) नोट-गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव हीन है। कर्म के तीन मुख्य रूप है-१-आवरक-यथार्थ पर आवरण डाल देना । कुछ कर्म सिर्फ आवरक होते हैं । २-अंतराय कर्म प्रतिबंधक कर्म है । ३-मोह कर्म विकारक है। चेतना को विकारक बनाते हैं। शक्ति जागरण के अनेक मार्गों में एक मार्ग है-शुभ भाव में रहना। जागरूकता के साथ संकल्पक करे कि मेरा मन शुद्ध हो रहा है, भाव शुद्ध हो रहा है तथा लेश्या शुद्ध हो रही है। अप्रमत्त योग की साधना करने वाले साधुओं की प्रति क्षण लेश्या विशुद्ध रहती है। परिणाम धारा विशुद्ध रहती है। वे केवलज्ञान तक की स्थिति तक पहुँच सकते हैं । अप्रशस्त लेश्या को न आने दे । अस्तु लेश्या जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसकी व्याख्या शरीर और आत्मा के संयोगिक भाव से की जाती है। आगमों में कहीं-कहीं कान्ति, तेज, प्रतिच्छाया और संकोच के अर्थ में लेश्या शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्राचीन साहित्य में प्रायः लेश्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है परन्तु तत्कालीन साहित्य इसके अर्थात्मा के बहुत निकट था। आजीवक सम्प्रदाय जो कि गोशालक ( महावीर ) से पहले विद्यमान था, उसमें अभिजाति के नाम से पर्याप्त व्याख्या है। इसी की छाया बौद्ध ग्रन्थों में है। भाव विशुद्धि के आरोह व अवरोह क्रम में सभी परम्पराए इसे तुला स्वरूप मानती है। लेश्या सामाजिक, वैज्ञानिक, यौगिक और चिकित्सिक सत्यों का प्रभावित रूप है। आकृति विज्ञान की दृष्टि से वर्ण और रंग दोनों प्रत्येक जीव कोषों में व्याप्त रहते हैं। रंग उनका दृश्य रूप है और वर्ण उनकी आभ्यान्तर छवि कान्ति है। इन्हीं शरीर प्रविष्ट रंगों के अनुरूप भाव कल्पना होती है।' लेश्या की शद्धि अध्यवसाय से होती है और अध्यवसाय की शुद्धि कषाय के क्षयोपशम-उपशम आदि से होती है। लेश्या हमारा भाव है। यदि अध्यवसाय शुद्ध न हो तो वह कभी शुद्ध नहीं हो सकती। चैतन्य की शुद्ध धाराए शुद्ध अध्यवसाय का निर्माण करती है। उसमें कषाय की मंदता की आवश्यकता है। शुद्ध अध्यवसाय शुद्ध भावों का निर्माण करते हैं और शुद्ध भाव विचारों को शुद्ध बनाते हैं, मन-वचन और काया को शुद्ध करते हैं। लेश्या का व्यापक अर्थ है--पुद्गल द्रव्य के संयोग से होने वाले जीव के परिणाम, जीव की ( विचार ) शक्ति से प्रभावित करने वाले सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य १. आकृति विज्ञान पृ० १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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