SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६१ लेश्या-कोश ईशानकल्प देवलोक के विमानों के सम्बन्ध में सौधर्मकल्प की तरह तीन संख्यात तथा तीन असंख्यात के, इस प्रकार छः गमक कहने चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार से सहस्रार देवलोक तक के विमानों के सम्बन्ध में तीन संख्यात तथा तीन असंख्यात के, इस प्रकार छः गमक कहने । लेकिन लेश्या में नानात्व कहना अर्थात् सनत्कुमार से ब्रह्मलोक तक पद्म तथा लांतक से सहस्रार तक शुक्ललेश्या कहनी चाहिए। आनत तथा प्राणत के जो संख्यात विस्तार वाले विमान हैं उनमें सहस्रार देवलोक की तरह शुक्ललेश्या को लेकर उत्पत्ति, च्यवन तथा अवस्थिति के तीन गमक कहने चाहिए। जो असंख्यात विस्तार वाले विमान हैं, उनमें एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात उत्पन्न (ग० १) होते हैं, एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात च्यवन (ग० २) को प्राप्त होते हैं ; तथा एक समय में असंख्यात अवस्थित ( ग० ३ ) रहते हैं । आरण तथा अच्युत विमानावासों में, जैसे आनत तथा प्राणत के विषय में कहा, वैसे ही छः छः गमक कहने चाहिए। इसी प्रकार प्रवेयक विमानावासों के सम्बन्ध में शुक्ललेश्या पर छः गमक आनत-प्राणत की तरह कहने चाहिए। पंच अनुत्तर विमानों में जो चार (विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित ) असंख्यात विस्तार वाले हैं उनमें एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात शुक्ललेशी अनुत्तर विमानावासी देव उत्पन्न (ग०१) होते है, जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात शुक्ललेशी अनुत्तर विमानावासी देव च्यवन ( ग० २) को प्राप्त होते हैं ; तथा असंख्यात शुक्ललेशी अनुत्तर विमानावासी देव अवस्थित ( ग० ३) रहते हैं। सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तर विमान जो संख्यात विस्तार वाला है उसमें एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात शुक्ललेशी अनत्तर विमानावासी देव उत्पन्न (ग. १) होते हैं; जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात शुक्ललेशी अनुत्तर विमानावासी देव च्यवन (ग०२) को प्राप्त होते हैं ; तथा संख्यात शुक्ललेशी अनुत्तर विमानावासी देव अवस्थित (ग० ३ ) रहते हैं। अनुत्तर विमान का सर्वार्थसिद्ध विमान एक लाख योजन विस्तार वाला है तथा बाकी चार अनुत्तर विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। देखो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy