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________________ ( 27 ) अर्थात् चंद्र और सूर्य के विमानों से निकले हुए प्रकाश पुद्गल प्रकाशित होते हैं, यावत् प्रभासित होते हैं । इस प्रकार ये सभी सरूपी कर्म योग्य लेश्या वाले पुद्गल प्रकाशित होते हैं यावत् प्रभासित होते हैं । प्रशस्त अध्यवसाय स्थान या भावशुद्धि - लेश्या की विशुद्धि से अवधिज्ञान वृद्धि को प्राप्त होता है । जिसको नंदी सूत्र में वर्द्धमान अवधिज्ञान कहा है । इसके विपरीत भाव की अविशुद्धि से, अध्यवसाय स्थान अप्रशस्त होने से अवधिज्ञान हीयमान हो जाता है । लेश्या की विशुद्धि से जीव अप्रतिपाती अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है । आगम में केवली को सर्वज्ञ सर्वदर्शी भी लब्धि की अपेक्षा कहा गया है, न कि उपयोग की अपेक्षा | अतः एकान्तर - उपयोग पक्ष निर्दोष है । कहा है "जुगवं दो नत्थि उवओगा ।" अर्थात् दो उपयोग एक साथ नहीं होते । यह नियम केवल छद्मस्थों के लिए नहीं है । अतः केवली में भी एक साथ, एक समय में एक ही उपयोग पाया जा सकता है । केवल ज्ञानी प्रवचन करते हैं वह उनका श्रुतज्ञान नहीं; अपितु भाषा पर्याप्त नाम कर्म के उदय से करते हैं । योग-द्रव्य श्रुत कहलाता है, क्योंकि सुनने वालों के लिए वह द्रव्यश्रुत, भावश्रुत का कारण बन जाता है । उनका वह प्रवचन वाग् श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है किन्तु श्रुतपूर्विका मति नहीं होती, यद्यपि लब्धि रूप से दोनों सहचर है, उपयोग रूप से प्रथम मति और फिर श्रुत का व्यापार होता है । कहा है विषयासक्त चित्तो हि यतिर्मोक्षं न विदंति । अर्थात् जिसका चित्त साधु-वेश धारण करने के पश्चात् भी विषयासक्त रहता है, ऐसी आत्मा मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकती है । यह एक आर्त्त-रौद्र ध्यान का भेद है । इन अशुभ ध्यान में कृष्णादि तीन अप्रशस्त लेश्या होती है । शोक ( खेद - खिन्नता ) मानसिक दुःख रूप है । यह आर्त्तध्यान का एक भेद है । शोक करने वालों में कृष्ण-नील कापोत लेश्या होती है । कहा हैजे णं जीवा माणसं वेदणं वेदेंति, तेसिणं जीवाणं सोगे । - भग० श १६ । उ २ । सू २६ Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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