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________________ लेश्या-कोश १०५ नाना जीवों की अपेक्षा कृष्णादि छहों लेश्याओं का काल सर्वकाल रूप है तथा एक जीव की अपेक्षा छहों लेश्याओं का जघन्य काल अन्तमुहूर्त रूप है। उत्कृष्ट काल कृष्ण लेश्या का तैतीस सागर, नीललेश्या का सत्रह सागर, कापोत लेश्या का सात सागर, तेजोलेश्या का दो सागर, पद्मलेश्या का अठारह सागर और शुक्ल लेश्या का तैंतीस सागर से कुछ अधिक है। '२३ द्रव्य लेश्या और भाव आगमों में द्रव्यलेश्या के भाव सम्बन्धी कोई पाठ नहीं है। लेकिन पुद्गल द्रव्य होने के कारण इसका पारिणामिक' भाव है। --अणुओ० '२४ लेश्या और अन्तरकाल (क) कण्हलेसस्सणं भंते ! अन्तरं कालओ केवचिरं होइ ? जहन्नेणं अन्तोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोपमाई अन्तोमुहुत्तमभहियाई, एवं नीललेसस्सवि, काऊलेसस्सवि ; तेउलेसस्सणं भंते ! अन्तरकालओ केवचिरं होइ ? जहन्नेणं अन्तोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो, एवं पम्हलेसस्सवि, सुक्कलेसस्सवि दोण्हवि एवमंतरं, अलेसस्स गं भंते ! अन्तरंकालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! साइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अन्तरं। -जीवा० प्रति ६ । गा २६६ । पृ० २५८ कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तमुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम है तथा तेजोलेश्या का अन्तरकाल जघन्य अन्यमुहते तथा उत्कृष्ट वनस्पति काल है तथा पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का अन्तरकाल तेजोलेश्या के अन्तरकाल के समान होता है। अलेशी सादि अपर्यवसित है तथा अन्तरकाल नहीं है। यह विवेचन जीव की अपेक्षा है, दव्यलेश्या, भावलेश्या दोनों पर लागू हो सकता है। (ख) अन्तरमरूक्कसं किण्हतियाणं मुहुत्तअन्तं तु । उवहीणं तेत्तीसं अहियं होदि ति णिहि ॥५५२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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