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________________ १०० लेश्या-कोश एवं वुच्चइ–'सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमइ ? गोयमा ! आगारभावमायाए वा जाव सुकलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थगया ओसक्कइ, से तेणणं गोयमा! एवं वुच्चइ–'जाव णो परिणमई। -पण्ण० प १७ । उ ५ । सू १२५५ । पृ० ३०१ शुक्ललेश्या मात्र आकार भाव से प्रतिबिम्ब भाव से पद्मत्व को प्राप्त होती है ; शुक्ललेश्या पद्मलेश्या के द्रव्यों का संयोग पाकर ( यह द्रव्य संयोग अतिसामान्य ही होगा ) पद्मलेश्या के रूप, वर्ण; गन्ध; रस और स्पर्श में सामान्यतः अवसर्पण करती है। अतः यह कहा जाता है कि शुक्ललेश्या पद्मलेश्या में परिणत नहीं होती है। टीकाकार मलयगिरि यहाँ इस प्रकार खुलासा करते हैं । प्रश्न उठता है यदि कृष्णलेश्या नीललेश्या में परिणत नहीं है तो सातवीं नरक में सम्यक्त्व की प्राप्ति किस प्रकार होती है ? क्योंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति जिनके तेजोलेश्यादि शुभलेश्या का परिणाम होता है उनके ही होती है और सातवीं नरक में कृष्णलेश्या होती है तथा भाव परावत्तीए पुण सुरनेरइयाणं पि छल्लेसा' अर्थात् भाव की परावृत्ति से देव तथा नारकी के भी छह लेश्याएं होती हैं; यह वाक्य कैसे घटेगा ? क्योंकि अन्य लेश्या द्रव्य के संयोग से तद्रूप परिणमन सम्भव नहीं है तो भाव की परावृत्ति भी नहीं हो सकती है। उत्तर में कहा गया है कि मात्र आकार भाव से-प्रतिबिम्ब भाव से कृष्णलेश्या नीललेश्या होती है लेकिन वास्तविक रूप में तो कृष्णलेश्या ही है; नीललेश्या नहीं हुई है। क्योंकि कृष्णलेश्या अपने स्वरूप को छोड़ती नहीं है। जिस प्रकार दर्पण में किसी का प्रतिबिम्ब पड़ने से वह उस रूप नहीं हो जाता है लेकिन दर्पण ही रहता है, प्रतिबिम्बित वस्तु का प्रतिबिम्ब या छाया जरूर उसमें दिखाई देता है। ऐसे स्थल में जहाँ कृष्णलेश्या अपने स्वरूप में रहकर :अवत्वकते-उत्वष्कते' नीललेश्या के आकार भाव मात्र को धारण करने से या उसके प्रतिबिम्ब भाव मात्र को धारण करने से उत्सर्पण करती है-नीललेश्या को प्राप्त होती है। कृष्णलेश्या से नीललेश्या विशुद्ध है उससे उनके आकार भाव मात्र या प्रतिबिम्ब भाव मात्र को धारण करती कुछ एक विशुद्ध होती है अतः उत्सर्पण करती है; नील लेश्यत्व को प्राप्त होती है ऐसा कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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