SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेश्या-कोश ५५ (ख) उच्यते, लिप्यते-श्लिष्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या । -पण्ण ० प १७ । प्रारम्भ में टीका __योग के सद्भाव में लेश्या रहती है, योगाभाव में लेश्या नहीं रहती है। इस प्रकार योग के साथ अन्वय-व्यतिरेक रहने से लेश्या योगनिमित्तक है-यह निश्चय होता है, क्योंकि सर्वत्र योगनिमित्तता के निश्चय का अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है। योगनिमित्तता के भी दो विकल्प हैं-(१) लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य रूप है या (२) योग निमित्त कर्मद्रव्य है ? योगनिमित्त कर्मद्रव्य रूप तो नहीं है, क्योंकि दो विकल्पों का अतिक्रमण नहीं होता है और यदि योगनिमित्त कर्मद्रव्य रूप स्वीकार करते हैं तो वह घातिकर्मद्रव्य रूप है या अघातिकर्मद्रव्य रूप है ? घातिकर्मद्रव्यरूप इसलिए नहीं है क्योंकि उसके ( घातिकर्म के ) अभाव में भी सयोगिकेवली में लेश्या का सद्भाव रहता है । अघातिकर्मद्रव्य रूप भी नहीं है, क्योंकि उसके (अघातिकर्म के) सद्भाव में भी अयोगिकेवली में लेश्या का अभाव रहता है। अतः अन्ततः लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य रूप मानना चाहिए। उन योगान्तर्गत (लेश्या आदि) द्रव्यों की अवस्थिति में जब तक कषाय रहते हैं तब तक उदय की वृद्धि के वे कारण होते हैं । योगान्तर्गत द्रव्यों में कषायों के उदय में वृद्धि करने का सामर्थ्य देखा जाता है। उदाहरणार्थ पित्तद्रव्य में पित्त के प्रकोप से महान् प्रवर्धमान क्रोध-कषाय देखा जाता है। और भी, बाह्यद्रव्य भी कर्मों के उदय और क्षयोपशम के हेतु रूप उपलब्ध होते हैं ; जै। ब्राह्मी औषधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम का हेतु होती है और सुरापान जानावरणोदय का हेतु होता है, अन्यथा किस प्रकार उनमें बिना कारण के युक्तायुक्त विवेक की विकलता उत्पन्न होती तथा दधिभोजन निद्रारूप दर्शनावरणोदय का हेतु होता है। तब योगान्तर्गत द्रव्यों से कषायों के उदय की वृद्धि क्यों नहीं होगी ? इसलिए लेश्यावश जो स्थितिपाक विशेष शास्त्रान्तर में कहा गया है वह कथन ठीक है। जहाँ स्थितिपाक नाम का अनुभाग कहा गया है उसके निमित्त-कारण कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादि लेश्याओं के परिणाम होते हैं और वे परमार्थतः कषाय स्वरूप ही हैं, क्योंकि ये कषाय के अन्तर्गत हैं। केवल योगान्तर्गत द्रव्यों के सहकारी कारण के भेद और वैचित्र्य से लेश्याओं के कृष्णा दि भेद किये जाते हैं और तर-तमता से लेश्याओं में विचित्रता उत्पन्न होती है। अतः कर्मप्रकृतिकार शिवशर्माचार्य ने अपने शतक ग्रन्थ में कहा है-'ठिडअणभागं कसायओ कुणइ'-कर्म की स्थिति और अनुभाग का कषाय कर्ता हैवह भी ठीक है, क्योंकि कृष्णादि लेश्याओं के जो परिणाम कषायोदय के अन्तर्गत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy