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________________ लेश्या-कोश १९ मूल (भग०) - सिणाए पुच्छा । x x x कतिसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! एगए परमसुक्क लेस्साए होजा । मूल (जीवा० ) x x x अणुत्तरोववाइयाणं एगा परमसुक्कलेस्सा | परमशुक्ललेश्या -- उत्कृष्ट शुक्ललेश्या । जिस प्रकार नक्षत्र और तारागण में चन्द्रमा श्रेष्ठ है; मणि मुक्ता, प्रवाल और रत्न के आगर के रूप में समुद्र श्रेष्ठ है इत्यादि ; उसी प्रकार आचरणों में ब्रह्मचर्य सबसे विशुद्ध है । इस उपमा प्रकरण में लेश्याओं में सबसे विशुद्ध परमशुक्ललेश्या कही गई है । परमशुक्ललेश्या स्नातक निर्ग्रन्थों में और अनुत्तरोपपातिक विमानों के देवों में होती है । - ०४ २६ पसत्थलेस्सा ( प्रशस्तलेश्या ) जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि अनंतगुणो, पसत्थलेस्साण तिन्हं पि ।। जह बूरस्स व फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एत्तो वि अनंतगुणो, पसत्थलेस्साण तिन्हं पि ॥ प्रशस्त लेश्या अर्थात् शुभ लेश्या । तेजो, पद्म और शुक्ल — इन तीन लेश्याओं को प्रशस्तलेश्या कहा गया है । इन द्रव्यलेश्याओं की सुगन्ध सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे चन्दनादि की सुगन्ध से अनन्तगुणी होती है कोमलता बूर नामक वनस्पति, नवनीत और शिरीष पुष्प अनन्तगुणी होती है । तथा इनकी स्पर्शकी कोमलता से भी ०४ ३० पाओग्गलेसाहि ( प्रायोग्य लेश्या ) - उत्त० अ ३४ । गT १७-१६ Jain Education International टीका x x x णेरइया असंजदसम्माइठिणो पढम पुढविआदि जाव छट्ठी पुढवि पंज्जवसाणासु पुढवीस हिदा कालं काऊण माणुसे चैव अप्पप्पणी पुढवि- पाओग्गलेस्साहि सह उत्पजंति त्ति - -- षट्० १ । १ । पु २ । पृ० ५११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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