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________________ ( 138 ) (आलता का रंग) से जघन्य रक्त होती है और एक, दो, तीन यावत् असंख्यात गुण अधिक रक्त अलक्तक से एक, दो, तीन यावत् असंख्यात गुण अधिक लेश्या द्रव्यों के योग से लेश्या के असंख्यात परिणाम होते हैं। इसी तरह उत्कृष्ट स्थान भी असंख्यात है। परिणामों के चढने उतरने के साथ ही लेश्याओं के स्थान बदलते रहते हैं । परिणाम की अपेक्षा-वैर्यमणि का दृष्टान्त है। यह अधिकार तिथंच और मनुष्य की अपेक्षा है क्योंकि उनमें द्रव्य लेश्या व भाव लेश्या बदलती रहती है। अस्तु नारकी और देवता की अपेक्षा लेश्या का परिणाम इस प्रकार है कृष्ण लेश्या, नील लेश्या को पाकर नील लेश्या के रूप में एवं नील लेश्या के वर्ण-गंध-रस और स्पर्श रूप में बार-बार परिणत नहीं होती। वहाँ कृष्ण लेश्या में नील लेश्या का आकार मात्र अर्थात् छाया रहती है, प्रतिबिम्ब रहता है किन्तु कृष्ण लेश्या अपना स्वरुप छोड़ कर नील लेश्या रूप में परिणत नहीं होती। जब योग का पूर्ण निरोध हो जाता है तब लेश्या का परिणमन भी सर्वथा रूक जाता है । अतः तब जीव अयोगी-अलेशी हो जाता है। योग और लेश्या में भिन्नता प्रदर्शित करने वाला एक और पाठ है। वह है वेदनीय कर्म का बंधन । सयोगी जीव के प्रथय दो भंग से अर्थात् (१) बांधा है, बांधता है, बांधेगा, (२) बांधा है, बांधता है, बांधेगा नहीं से वेदनीय कर्म का बंधन करता है। लेकिन सलेशी जीव के प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ भंग-(४) बांधा है, न बांधता है, न बांधेगा से वेदनीय कर्म का बधन होता है ( देखे .६६ १६ ) सलेशी के ( शुक्ल सलेशी ) चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बंधन विषय पर पुनः गहरे चिन्तन की आवश्यकता है। हो सकता है कि तेरहवें गुणस्थान में भाव लेश्या नहीं है, भाव लेश्या से कर्म का बंधन होता है, द्रव्य लेश्या से नहीं। इन सब प्रश्न पर गहरा चिन्तन करना आवश्यक लगता है। फिर भी मूल पाठ में यह बात है तथा टीकाकार ने भी इसका कोई विवेक पूर्वक एक विश्लेषन नहीं दे सके हैं। टीकाकार ने घंटालाला न्याय की दुहाई देकर अवशेष बहुश्रुत गम्य करके छोड़ दिया है। ___ अशुभ परिणाम व अप्रशस्त अध्यवसाय सावध है । अश्रुत्वा केवली को साधना का बना-बनाया मार्ग उपलब्ध नहीं होता। उनके चित्त में अनायास ही एक लहर उठती है। वे तपस्या प्रारम्भ करते हैं। निरन्तर दो-दो दिन की तपस्या से उनके भाव-विशुद्ध बनते हैं और लेश्या विशुद्ध होती है। इस विशुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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