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________________ ( 125 ) उपसर्ग हर स्रोत्र श्री भद्रवाहु स्वामी जो चतुर्दश पूर्वधर थे। संघ के मंगल व शांति के लिए बनाया । मन पुर है। और चित्त अन्तःपुर । कर्म और संस्कार चित्त में रहते हैं । 'जं थिर मज्झवसाणं तं झाणं ।' स्थिर अध्यवसाय अर्थात् मानसिक एकाग्नता ही ध्यान है। मानसिक एकाग्नता ही प्रज्ञा के द्वार खोलती है। प्रज्ञा का मूल्य स्मृति, मति व बुद्धि तीनों से ज्यादा है। प्रज्ञा ज्ञान की प्रखर ऊर्जा है। मनोशुद्धि या चित्तशुद्धि की साधना प्रशस्त लेश्याओं के द्वारा जल्द होती है। चित्त का निर्मलीकरण, जीवन मूल्यों के विशुद्धिकरण का अनुष्ठान है। चित्तशुद्धि, ध्यान की पूर्व भूमिका है। भावों की शुद्धि पहला चरण है और ध्यान दूसरा चरण । चित्त का शांत होना जीवन का संस्कार है। उपशम श्रेणी में स्थित मुनि यदि काल कर जाय तो अहमिन्द्र देव होता है। कहा है सुअकेवली आहारग, उजुमइ उवसंतगावि उपमाया। हिंडति भवमणंतं, तयणंतरमेव चउगइया । -प्रकरण रत्नावली पृ० ६६ अर्थात् श्रुत केवली-चौदह पूर्वी, आहारक शरीर की लब्धिवाले, ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी, तथा ग्यारहवें गुणस्थान में उपशांत मोह वाले भी प्रमाद के योग से उस भव में चार गति वाले होकर अनंतभव भ्रमण करते हैं । धर्मनाथ तीर्थङ्कर ने प्रवचन में गणधर के प्रश्न करने पर कहा कि यह जो मेरे पास चूहा बैठा है यह मोक्ष जायेगा। यह पूर्वभव में साधु था। चूहा-चूही के परस्पर आमोद-प्रमोद करते देखकर निदान किया-चूहे योनि में उत्पन्न हुआ । जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। संथारा ग्रहण कर देवलोक में गया, फिर मोक्षगामी होगा। प्रतीत होता है कि परिणाम, अध्यवसाय व लेश्या में बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है। जहाँ परिणाम शुभ होते हैं, अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं वहाँ लेश्या विशुद्धमान होती है । कर्मों की निर्जरा के समय ( तेरहवें गुणस्थान तक ) में परिणामों का शुभ होना अध्यवसायों का प्रशस्त होना तथा लेश्या का विशुद्धमान होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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