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________________ ( 108 ) श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणा इति लेश्याः। . -आवहाटी० १ । सू १३ ..जो आत्मा को अष्टविधकर्म से श्लिष्ट करती है, वह लेश्या है। आत्मपरिणाय विशेष है। यद्यपि कृष्ण लेश्या सामान्य रूप से एक है। तथापि उसके अबान्तर भेद अनेक हैं--कोई कृण्ण लेश्या अपेक्षाकृत विशुद्ध होती है, कोई अविशुद्ध । एक कृष्ण लेश्या से नरक गति मिलती है, एक से भवनपति देवों में उत्पत्ति होती है अतः कृष्ण लेश्या के तरतमता से भेद अनेक है अतः उनका आहारादि समान नहीं होता है। यही बात सभी लेश्याओं वाले जीवों के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। चन्द्रप्रद्योत उज्जयनी का राजा था। उस समय शतानीक का पूत्र उद्दायन था। शतानीक की मृत्यु के बाद उद्दायन ने कौशाम्बी नगरी का राज्य संभाला। उसकी माता भृगावती ने भगवान महावीर से दीक्षा ग्रहण की। हेमचन्द्राचार्य ने देवचन्द्रसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की-वि० सं ११५४ माससुदी १४ दिन सोमवार उम्र ६ वर्ष । दीक्षा के समय उनका नाम मुनि सोमचन्द्र रखा। __ लेश्या विचार भारतीय दर्शनों में कब से आया ? इसे काल की अवधि में बांधना कठिन है। क्योंकि भगवान पार्श्वनाथ की शासन परम्परा में लेश्या का सैद्धान्तिक रूप क्या था ? इसका इतिहास में संप्राप्त नहीं है। परन्तु आजीवक सम्प्रदाय जो कि गोशालक ( महावीर ) से पहले विद्यमान था । उसमें अभिजाति के नाम से पर्याप्त व्याख्या है । इसी की छाया बौद्ध ग्रन्थों में है। वहाँ वर्गीकरण प्रणाली एवं विभाजन पद्धति थी इसे कहा गया है। भाव विशुद्धि में आरोह व अवरोह क्रम में सभी परम्पराए इसे तुला स्वरूप मानती है। अतः वर्तमान 'प्रयोगवाद ( शास्त्र ) के साथ हम कहाँ तक चल सकते हैं।' * १-एक लेश्या-बीतराग में-शुक्ललेश्या । २-दो लेश्या-तीसरी नरक में नील-कापोत । पांचवी नरक में-कृष्ण-नील । ३–तीन लेश्या-विकलेन्द्रिय में—कृष्ण, नील और कापोत । ४-चार लेश्या-असुरकुमार देवों में-पृथ्वीकाय-अप्काय, वनस्पतिकाय में-वाणव्यंतर देवों में-कृष्ण-नील-कापोत और तेज् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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