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________________ इसमें अंग, बंग इत्यादि १६ जनपदों को घात, वध, उच्छेद तथा भस्म करने की शक्ति होती है । शीतल तेजोलेश्या में शीतोष्ण तेजोलेश्या से उत्पन्न ज्वाला- दाह को प्रशान्त करने की शक्ति होती है। वैश्यायण बाल तपस्वी ने गोशालक को भस्म करने के लिए शीतोष्ण तेजोलेश्या निक्षिप्त की थी । भगवान महावीर ने शीतल तेजोलेश्या छोड़कर उसका प्रतिघात किया था । निक्षेप की हुई तेजोलेश्या का प्रत्याहार भी किया जा सकता है । तेजोलेश्या जब अपने से लब्धि में अधिक बलशाली पुरुष पर निक्षेप की जाती है तब वह वापस आकर निक्षेप करने वाले के भी ज्वाला- दाह उत्पन्न कर सकती है तथा उसको भस्म भी कर सकती है । यह तेजोलेश्या जत्र निक्षेप की जाती है तत्र तेजस शरीर का समुद्घात करना होता है तथा इस तेजोलेश्या के निर्गमन काल में तैजस शरीर नामकर्म का परिशात (क्षय) होता है । निक्षिप्त की हुई तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं ( देखें २५, '६६°४, ‘६६°१४, 'ε६°१५)। और एक प्रकार की तेजोलेश्या का वर्णन मिलता है । उसे टीकाकार सुखासीकाम अर्थात् आत्मिक सुख कहते हैं । देवता पुण्यशाली होते हैं तथा अनुपम सुख का अनुभव करते हैं फिर भी पाप से निवृत्त आर्य अनगार को प्रव्रज्या ग्रहण करने से जो आत्मिक सुख का अनुभव होता है—वह देवताओं के सुख को अतिक्रम करता है अर्थात् उनके सुख श्रेष्ठ होता है यथा पाप से निवृत्त पाँच मास की दीक्षा की पर्यायवाला आर्य श्रमण निर्ग्रन्थ चन्द्र और सूर्य देवताओं के सुख से भी अधिक उत्तम सुख का अनुभव करता है । ( देखें ·२५·५ ) यह निश्चित नियम है कि जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके मरण को प्राप्त होता है उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जीव जैसी भावलेश्या के परिणामों को लेकर मरता है वैसी ही भावलेश्या के परिणामों के साथ परभव में जाकर उत्पन्न होता है ( देखें ५७ ) । अब यह प्रश्न उठता है कि कृष्णलेशी जीव परभव में जाकर जिस जीव के गर्भ में उत्पन्न होता है वह जीव क्या कृष्णलेशी ही होना चाहिये ? ऐसा नियम नहीं है । कृष्णलेशी जीव छओं लेश्याओं में से किसी भी लेश्या वाले जीव के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार अन्य लेश्याओं के विषय में भी समझना चाहिये ( ५५ ) । मरण के समय लेश्या परिणाम तीन प्रकार के होते हैं (१) स्थित परिणाम ( २ ) संक्लिष्ट परिणाम तथा (३) पर्यवजात परिणाम अर्थात् विशुद्धमान परिणाम । बालमरणवाले जीवों के तीनों प्रकार के लेश्या परिणाम हो सकते हैं । बालपंडित मरणवाले जीव के यद्यपि मूल पाठ में तीन प्रकार के परिणामों का वर्णन है फिर भी टीकाकार कहते हैं कि उस जीव के केवल स्थित लेश्या परिणाम होने चाहिये । इसी प्रकार पंडित मरणवाले जीव के भी मूल पाठ में तीन प्रकार के परिणाम बतलाये गए हैं लेकिन टीकाकार ने कहा है कि उस जीव के केवल पर्यवजात अर्थात् विशुद्धमान लेश्या के परिणाम होने चाहिये (देखें '९६ ) । Jain Education International [ 32 ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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