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________________ लेश्या - कोश २४७ के द्रव्यों के ग्रहण की निष्पन्नता अथवा भावलेश्या के एक लेश्या से दूसरी लेश्या में परिणमन की निष्पन्नता लेश्यानिवृत्ति । -६३ लेश्या और प्रतिक्रमण : पडिक्कमा म छहिं लेस्साहि - कण्हलेस्साए, नीललेस्साए, काऊलेस्साए, तेऊलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए । xxx तस्स मिच्छामि दुक्कडं । - आव० अ ४ | सू ६ | पृ० ११६८ आदिल्ल तिणि एत्थं, अपसत्था उवरिमा पसत्थाउ । अपसत्थासु वट्टियं, न वट्ठियं जं पसत्थासु । एसइयारो एया - सु होइ, तस्स य पडिक्कमामिति । पडिकूल वट्टामी, जं भणियं पुणो न सेवेमि । — आव० अ ४ । सू ६ । हारि० टीका में उद्धृत मैं छः लेश्याओं का प्रतिक्रमण करता हूँ - उनसे निवृत्त होता हूँ । मेरे लेश्या जनित दुष्कृत निष्फल हों । यदि तीन अप्रशस्त लेश्या में वर्तना की हो तथा तीन प्रशस्त लेश्या में वर्तना न की हो तो इस कारण से संयम में यदि किसी प्रकार का अतिचार लगा हो तो उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । प्रतिकूल लेश्या में यदि वर्तना की हो तो मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि फिर उसका सेवन नहीं करूंगा । • १४ लेश्या शाश्वत भाव है : रोहा ! लोयंते य, अलोयंते य ; भावा), अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! ठाणेहिं, तंजा 'पुव्वि भंते! लोयंते, पच्छा अलोयंते ? पुत्रि अलोयंते पच्छा लोयंते ? जाव - ( पुव्वि एते, पच्छा एते-दुवेते सासया x x x एवं लोयंते एक्केक्केणं संजोएयव्वे इमेहिं Jain Education International उवास - वाय- घणउदहि- पुढवी - दीवा य सागरा वासा । नेरइयाई अत्थिय समया कम्माई लेस्साओ ॥ १ ॥ दिट्ठी - दंसण - णाणा - सण्णा - सरीरा य जोग-उवओगे । दव्वपएसा अद्धा किं पुवि लायंते ॥ २ ॥ पज्जव -भग० श १ | उ ६ । प्र २१६, २२० । पृ० ४०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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