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________________ लेश्या - कोश १६३ पा कम्मं समायं पट्टर्विसु विसमायं निट्टर्विसु । तत्थ णं जे ते विसमाज्या समोववन्नगा ते पावं कम्मं विसमायं पट्टर्विसु समायं निट्टविंसु । तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम्मं विसमायं पट्टर्विसु विसमायं निट्ठर्विसु । से तेणट्टणं गोयमा ! तं चैव । सरसाणं भंते! जीवा पावं कम्मं० ? एवं चेव, एवं सव्वट्ठाणेसु वि जाव अणगारोवता । एए सव्वे वि पया एयाए वत्तव्वयाए भाणियव्वा । नेरइयाणं भंते! पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु समायं निट्टर्विसु० पुच्छा ? गोमा ! अत्थेगइया समायं पट्ठविसु० एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियव्वं जाव अणगारोवउत्ता । एवं जाव वैमाणियाणं जस्स जं अत्थि तं एएणं चेव कमेण भाणियां । जहा पावेण (कम्मेण दण्डओ, एएणं कमेणं अठ्ठसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ठ दण्डगा भाणियव्वा जीवादीया वैमाणियपज्जवसाणा । एसो नवदण्डगसंगहिओ पदमो उद्दे सो भाणियव्वो । - भग० श २६ । उ १ | प्र १ से ४ | पृ० ६०४ जीव पापकर्म के भोगने का प्रारम्भ तथा अंत एक काल या भिन्न काल में करते हैं । इस अपेक्षा से चार विकल्प बनते - ( १ ) भोगने का प्रारम्भ समकाल में करते हैं तथा भोगने का अंत भी समकाल में करते हैं, (२) भोगने का प्रारम्भ समकाल में करते हैं तथा भोगने का अंत विषमकाल में करते हैं, (३) भोगने का प्रारम्भ विषमकाल में तथा भोगने का अंत समकाल में करते हैं, (४) भोगने का प्रारम्भ विषमकाल में तथा अंत भी विषमकाल मैं करते हैं। क्योंकि जीव चार प्रकार के होते हैं । यथा - (१) कितने ही जीव सम आयु वाले तथा समोपपन्नक, (२) कितने ही जीव सम आयु वाले तथा विषमोपपन्नक, (३) कितने ही जीव विषम आयु वाले तथा समोपपन्नक तथा (४) कितने ही जीव विषम आयु वाले तथा विषमोपपन्नक होते हैं। (१) जो जीव सम आयु वाले तथा समोपपन्नक हैं वे पापकर्म का वेदन समकाल में प्रारम्भ करते हैं तथा समकाल में अंत करते हैं, (२) जो जीव सम आयु वाले तथा विषमोपपन्नक हैं वे पापकर्म का वेदन समकाल में प्रारम्भ करते हैं तथा विषमकाल में अंत करते हैं, (३) जो जीव विषम आयु वाले तथा समोपपन्नक हैं वे पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ विषमकाल में करते हैं तथा समकाल में पापकर्म का अंत करते हैं, तथा (४) जो जीव विषम आयु वाले हैं तथा विषमोपपन्नक हैं वे पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ विषमकाल में करते हैं तथा विषमकाल में ही पापकर्म का अंत करते हैं । २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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