SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) "छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि” इस पाठ को देखने पर यही धारणा बनती है कि छद्मस्थकाल की अंतिम रात्रि में भगवान् महावीर ने दस स्वप्न देखे । किन्तु आवश्यक निर्युक्ति आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों तथा व्याख्या ग्रन्थों के साथ इस धारणा की संगति नहीं बैठती । वृत्तिकार ने जो अर्थ किया है वह प्रस्तुत पाठ और उत्तरवर्ती ग्रन्थों की संगति बिठाने का प्रयत्न हैं । एकबार भगवान् महावीर अस्थिग्राम गए। वहाँ एक वाणव्यंतर का मंदिर था । उसमें शूलपाणि यक्ष की प्रभावशाली प्रतिमा थी । जो व्यक्ति उस मन्दिर में रात्रिवास करता, वह यक्ष द्वारा मारा जाता था । लोग वहाँ दिन भर रहते और रात्रि को अन्यत्र चले जाते । वहाँ इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण पुजारी रहता था । वह भी दिन-दिन में मंदिर में रहता और रात्रि में पास वाले गाँव में अपने घर चले जाता । बहुत सारे लोग एकत्रित हो गये । भगवान् महावीर वहाँ आये । में रात्रि-वास करने की आज्ञा मांगी । सकता । गाँववाले जाने | भगवान रहा जा सकता । आप गाँव में चलें । दो । मैं यहीं रहना चाहता हूँ । तब भगवान् ने मन्दिर देव कुलिक (पुजारी) ने कहा- मैं आज्ञा नहीं दे ने गाँववालों से पूछा । उन्होंने कहा - 'यहाँ नहीं भगवान् ने कहा- नहीं, मुझे तुम आज्ञा मात्र दे गाँव वालों ने कहा- अच्छा, आप जहाँ चाहे वहाँ रहे । भगवान् मंदिर के अन्दर गये और एक कोने में कायोत्सर्ग मुद्राकर स्थित हो गये । ? पुजारी इन्द्र शर्मा मन्दिर के अन्दर गया । संबोधित कर कहा ― चलो । यहाँ क्यों खड़े हो रहे । व्यन्तर देव ने सोचा - देवकुलिक और गाँव के यहाँ से नहीं हट रहा है । मैं भी इसे आग्रह का मजा चखाऊँ । प्रतिमा की पूजा की और भगवान को अन्यथा मारे जाओगे । भगवान् मौन लोगों के द्वारा कहनेपर यह भिक्षु सांझ की बेला हुई। शूलपाणि ने भीषण अट्टहास कर भगवान् को डराना चाहा। लोग इस भयानक शब्द से काँप उठे। उन्होंने सोचा - आज देवार्य मौत के कवल बन जायेंगे । उसी गाँव में एक पार्श्वपत्यिक परिव्राजक रहता था । उसका नाम उत्पल था । वह अष्टांग निमित्त का जानकार था । उसने सारा वृत्तांत सुना । किन्तु रात में वहाँ जाने का साहस उसने भी नहीं किया । शूलपाणि यक्ष ने जब देखा कि उसका पहला वार खाली गया है, तब उसने हाथी, पिशाच और भयंकर सर्प के रूप धारण कर भगवान् को डराना चाहा । भगवान् अब भी अडोल खड़े थे । यह देख यक्ष का क्रोध उभर आया । उसने एक साथ सात वेदनाएँ उदीर्ण कीं । अब भगवान् के सिर, नासा, दांत, कान, आँख, नख और पीठ में भयंकर वेदना होने लगी । एक-एक वेदना इतनी तीव्र थी कि उससे मनुष्य मृत्यु पा सकता था । सातों का एक साथ आक्रमण अत्यन्त अनिष्टकारी था किन्तु भगवान् अडोल थे । की श्रेणी में ऊपर चढ़ रहे थे । वे ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy