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________________ ( 53 ) तत्पश्चात् सौधर्म देवलोक से चवकर भगवान् महावीर का जीव भगवान् ऋषभ के पुत्र भरत के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम मरीचि कुमार था । इक्ष्वाकु कुल मे जन्म हुआ । अतीत में कुलकर वंश था । वीरजिदिचरिउ में महाकवि पुष्पदंत ने कहा है ' – '' सौधर्म स्वर्ग से दिव्य भोगों को भोगकर तथा एक सागरोपन काल जीवित रह कर वह शबर स्वर्ग से च्युत हुआ । " भरत की रानी अनन्तमती अत्यन्त सुन्दर थी । उसी ग पयोधरी देवी के गर्भ में वह शबर का जीव आकर उत्पन्न हुआ | उनका वह पुत्र मरीचि नाम से विख्यात हुआ ।" सुर-असुरों द्वारा की गई भगवान् ऋषभ देव के केवल ज्ञान की महिमा को देखकर मरीचि भी अपने पाँच सौ भाइयों के साथ निर्ग्रन्थ बना था । वह ग्यारह ही, अंगों का ज्ञाता बना और प्रतिदिन भगवान् ऋषभदेव के साथ उनकी छाया की तरह विहरण करता था । एक बार भीषण परिषहों के उत्पन्न होने के कारण उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ - प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का मैं पौत्र हूँ । अखण्ड छ: खण्ड के विजेता प्रथम चक्रवर्ती भरत का मैं पुत्र हूँ । चतुर्विध संघ के समक्ष वैराग्य से मैंने प्रव्रज्या ग्रहण की है । संयम को छोड़कर घर चले जाना मेरे लिए लज्जास्पद है, किन्तु चारित्र के इतने बड़े भार को अपने इन दुर्बल कंधों पर उठाये रखने मैं सक्षम नहीं हूँ । महाव्रतों का पालन अशक्य अनुष्ठान है और इन्हें छोड़कर घर चले जाने से मेरा उत्तम कुल मलिन होगा । अपने ही विचारों में खोया हुआ मरीचि आगे और सोचने लगा- भगवान् ऋषभदेव के साधु मनोदण्ड, वचनदंड और कायदंड को जीतने वाले हैं और मैं इनसे जीता गया हूँ अतः त्रिदण्डी बनूंगा । इन्द्रियविजयी ये श्रमण केशों को लुंचन कर मुंडित होकर विचरते हैं। मैं मुण्डन कराऊँगा और शिखा रखूंगा। मैं केवल स्थूल प्राणियों के वध से ही उपरत रहूँगायद्यपि ये निर्ग्रन्थ सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के प्राणियों के वध से विरत हैं। मैं अकिञ्चन भी नहीं रहूँगा और पादुकाओं का प्रयोग भी करूँगा । चंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन करूँगा । मस्तक पर छत्र धारण करूँगा । कषाय रहित होने से ये मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं और मैं कषाय- कालुष्य से युक्त हूँ । अतः वस्त्र पहनूँगा । ये सचित्त जल के परित्यागी है, पर मैं वैसे करूँगा तथा पीऊँगा भी । अपनी बुद्धि से वेश की इस तरह परिकल्पना कर तथा उसे धारण कर वह भगवान ऋषभदेव के साथ ही विहरण करने लगा । इसकी स्मृति में काषायित परिमित जल से स्नान भी साधुओं की टोली में इस अद्भुत साधु को देखकर कौतुहल वश बहुत सारे व्यक्ति उससे धर्म पूछते । १ - वीरजिदिचरिउ १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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