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________________ ( 51 दूर हूँ ; अतः मुझे वस्त्रों का क्या प्रयोजन । " पूरण काश्यप की निस्पृहता और असंगता देखकर जनता उनकी अनुयायी होने लगी । पूर्ण काश्यप अक्रियवाद के समर्थक थे । > इन मुख्य धर्म और धर्मनायकों के अतिरिक्त और भी अनेक मतवाद उस युग में प्रचलित थे । जैन- परम्परा में ३६३ भेद-प्रभेदों में बताये गये हैं तथा बौद्ध परम्परा में केवल ६२ भेदों में ।' अनेक प्रकार के तापसों का वर्णन भी आगम और त्रिपिटक साहित्य में भरपूर मिलता है । महावीर ने एक साथ चतुर्विध संघ की स्थापना की । विनयपिटक के अनुसार बौद्ध धर्म संघ में पहले-पहल भिक्षुणियों का स्थान नहीं था । वह स्थान कैसे बना, इनका विनयपिटक में रोचक वर्णन है । एक बार बुद्ध कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में रह रहे थे। उनकी मौसी प्रजापति गौतमी, उनके पास आई और बोली- 'भन्ते ! अपने भिक्षु संघ में स्त्रियों को भी स्थान दें ।' बुद्ध ने कहा- - 'यह मुझे अच्छा नहीं लगता।' गौतमी ने दूसरी बार और तीसरी बार भी बात दोहराई, पर उसका परिणाम कुछ नहीं निकला । -- थे, गौतमी भिक्षुणी का वेष आनन्द ने उसका यह स्वरूप टपक रही थी । आनन्द कुछ दिनों बाद जब बुद्ध वैशाली में विहार कर रहे बनाकर अनेक शाक्य स्त्रियों के साथ आराम में पहुँची । देखा । दीक्षा ग्रहण करने की आतुरता उसके प्रत्येक अवयव से को दया आयी । वह बुद्ध के पास पहुँचा और निवेदन किया- 'भंते! स्त्रियों को भिक्षु-संघ में स्थान दें।' क्रमशः तीन बार कहा, पर कोई परिणाम नहीं निकला । अंत में कहा - 'यह महा प्रजापति गौतमी है, जिसने मातृवियोग में भगवान को दूध पिलाया है । अतः अवश्य प्रवज्या मिले ।' अन्त में बुद्ध ने आनन्द के अनुरोध को माना और कुछ अधिनियमों के साथ उसे स्थान देने की आज्ञा २ बुद्ध के बोधि- जीवन के प्रारम्भिक २० वर्षों में ही कभी अजातशत्रु का राज्यारोहण हो गया था, अर्थात् अजातशत्रु के राज्यारोहण के पश्चात् कम-से-कम २५ वर्ष तो बुद्ध जीवित रहे थे । दीर्घनिकाय के सायज्ञफल सुत्त (१/२) केअनुसार मगध नरेश अजातशत्रु बुद्ध के किसी एक राजगृह- वर्षावास में बुद्ध से मिले थे । अंगुत्तरनिकाय में कहा है (अट्ठकथा२, ४, ५) कि बुद्ध ने बोधि प्राप्ति के पश्चात् दूसरा, तीसरा, चौथा, सत्रहवां और बीसवां वर्षावास राजगृह में बिताया। महावीर का निर्वाण उत्तर बिहार की पावा में हुआ, न कि दक्षिण बिहार वाली पावा में । अजातशत्रु महावीर का अनुयायी था और बुद्ध का केवल समर्थक; आदि-आदि । १ – दीर्घनिकाय, बह्यजाल सुत्त १/१ २ - विनयपिटक, चुल्लवग, भिक्खुणी स्कंधक—१०-१-४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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