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________________ ( ३८६ ) समान यावत् आहार पानी दिखाया । वे सिंह अनगार रेवती गाथापत्नी के घर से निकलकर मैटिक ग्राम नगर के मध्य में होते हुए भगवान् के पास पहुँचे और गौतम स्वामी के फिर वह सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के हाथ में भली प्रकार रख दिया। इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मुच्छ ( आसक्ति ) रहित यावत् तृष्णा रहित, बिल में सर्पप्रवेश के समान उस आहार को शरीर रूप कोठे में डाल दिया । उस आहर को खाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर का वह महापीड़ाकारी रोग शीघ्र ही शांत हो गया । वे हृष्ट, रोग रहित और बलवान् शरीर वाले हो गये। इस से सभी भ्रमण तुष्ट (प्रसन्न हुए, श्रमणियाँ तुष्ट हुई, श्रावक तुष्ट हुए, श्राविकाएँ तुष्ट हुई, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुई और देव, मनुष्य, असुरों सहित समग्र विश्व संतुष्ट हुआ । * २६ गोशालक - एक प्रसंग '१ अनन्तरं भगवद्गोशालयोः प्रत्येकं बिहारोऽभवत् ततो गोशालो तेसिं चोराण सन्निगासमागतो, तेहि पंचहिवि चोरस- एहि पिसाओ ( माडलओ ) त्तिका वाहितो, पच्छा चिंतेइ - वरं सामिणा समं, अधियकोइ मोएइ सामि निस्साए ममविमोयणं भवर, ताहे सामि मग्गिउमारद्धो । - आब० निगा ४८४ टीका तेणेहि पहे गहिओ गोसालो माउलुत्ति वाहणया । टीका - स्तेनैः पथि गोशालो गृहीतः मातुल इति २ ततो जगाम भगवान् वैशाली गामिनाध्वना । प्रचचाल व गोशाल एको राजगृहाध्वना ॥ ५९५ ॥ गोशालोऽयान्महारण्यं चोरपंच शताचितम् । विवेश मृषक इव सर्पाकीर्ण महाबिलम् ॥ ५९६ ॥ वृक्षारूढश्चौरपुमान् गृध्रवद् दूरतोऽपि तम् । ददर्शाख्यश्च चौराणां नग्नः कोऽप्यैत्यकिंचनः ||५९७|| तेऽप्यूयिरे तथाप्येष न मोच्यः स्याच्चरोऽप्ययम् । किं चैष न पराभूय यातीदमपि नोचितम् ।। ५९८ ।। एवं चाभ्यर्णमायातं गोशालं मातुलेहि भोः । वदन्तः पृथगिति तेऽध्यारुह्य तमषाहवन् ॥ ५९९ ॥ पृथक् पृथग्वाहनया तेषां गोशालकोऽभवत् । श्वासशेषपुस्ते व चौराः प्रययुरम्यतः ६०० ॥ Jain Education International - आव० निगा ४८५ पृषध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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