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________________ ( ३६५ ) उवषण्णे, अहं णं उदाइमाणं कुंडियायणीए, अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पषिसामि गो० २ अणुप्पषिसित्ता इमं सत्तम पउपरिहारं परिहरामि जे वि आई आउसो कासवा! अम्हं समयंसि केह सिजिससु वा सिझंति वा सिजिमस्संति वा सव्वे ते चउरासीई महाकप्पसयसहस्साई सत्त दिव्वे, सत्त संजूहे, सत सण्णिगन्भे, सत्त पउपरिहारे, पंच कम्मणि सयसहस्साई संहिच सहस्साई छच्चसए तिणि य कम्मसे अणुपुग्वेण सबहत्ता तो पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्यायंति, सम्बदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति षा करिस्संति का।। -भग श १५/प्र १०११पृ. ६७७ जब आनंद स्थविर, गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों से भगवान की आज्ञा सुना रहे थे, इतने में ही गोशालक आजीविक संघ सहित हालाहला कुंभारिन की दुकान से निकलकर, अत्यन्त रोष को धारण करता हुआ शीघ्र और त्वरित गति से कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान महावीर के पास पाया। श्रमण भगवान महावीर से न अतिदूर, न अतिनिकट खड़ा रहकर उन से इस प्रकार कहने लगा--" आयुष्मान ! काश्यप गोत्रीय ! मेरे विषय में तुम अच्छा कहते हो, हे आयुष्यमान काश्यप ! तुम मेरे विषय में ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी शिष्य है । (परन्तु आप को शात चाहिए कि) जो मंखलि पुत्र गोशालक तुम्हारा धर्मान्तेवासी शिष्य था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात (पवित्र परिणाम वाला) होकर काल के समय काल करके किसी देवलोक में देवपने उत्पन्न हुआ है। मैं तो कोडिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ। मैंने गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग करके मखलि पुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश कर यह सातवाँ परिवृत्तपरिहार (शरीरान्तर प्रवेश ) किया है । हे आयुष्मान ! काश्यप ! तुम्हारे सिद्धांतानुसार जो मोक्ष में गये है, जाते है और जावेंगे, वे सभी चौरासी लाख महाकल्प (काल विशेष) सात देवभव, सात संयूथति काय, सात संशी गर्भ (मनुष्य गर्भावास), सात परिवृत्त परिहार (शरीरान्तर प्रदेश) और पाँच लाख साठ हजार छह सौ तीन कर्मों के भेदों से अनुक्रम से क्षय करने के बाद सिद्ध होते है, बुद्ध होते है, मुक्त होते है, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अंत करते है । भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान काल में करते है और भविष्य में करेंगे। '७ गोशालक को सही स्थिति बताना स्वाभ्यथोचे यथाऽऽरभैः कुम्भमाणो मलिम्लुच। गतं दुर्ग वनं वाऽपि स्वान्तर्धानमवाप्नुषन् ।। ४०० ।। ऊर्णालोम्ना शणलोम्ना तूलोशेन तृणेन वा। मन्यतेऽन्तरदत्तनास्मान मावृतमल्पधीः ॥ ४०१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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