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________________ ( ३४१ ) स्थान में दूसरी प्रतिमा स्थापित की जाती है।” फल स्वरूप राजा ने उसे करना स्वीकृत किया । तथा मंत्रिओं ने उस ब्राह्मण को वैसा कहा। उसने भी स्वयं के स्थान में स्वयं पुत्रों को स्थापित किया । और स्वयं घर पर रहा। __ मधुमंडक की तरह क्षुद्र मक्षिकाओं के जल से भरपूर ऐसे ब्राह्मण को उनके पुत्रों ने भी घर के बाहर एक झोपड़ी बाँधकर उसमें रखा। उनकी पुत्रवधुओं ने जुगुप्सा पूर्वक उसे भोजन कराने के लिए जाया करती थी। और नासिका, मरडी-ग्रीवा बांकी करके थूकती थी। घर के बाहर रखे हुए उस ब्राह्मण की आशा उसके पुत्र भी नहीं मानते थे। मात्र श्वान की तरह उसे एक काष्ठ के पात्र में भोजन दिया जाता था। अथ सोऽचिन्तयविप्रः श्रीमन्तोऽमी मयारुताः। एभिमुंक्तोऽस्म्यनादृत्य तीर्णाम्भोभिस्तरण्डवत् ॥ १०२ ।। तोषयन्ति न पाचाऽपि रोषयन्त्येष माममी। कुष्ठी रुप्टो न संतुष्टो भव्य इत्यनुव्यापिनः ॥ १०३ ।। जुगुप्सन्ते यथैते मां जुगुप्स्याः स्युरमी अपि। यथा तथा करिष्यामीत्यालोच्यावोचदात्मजान् ।। १०४ ॥ उद्विग्नो जीवितस्याहं कुलाचारस्त्वसौ सुताः। मुमूर्षुभिः कुटुम्बस्य देयो मंत्रोक्षितः पशुः ॥ १०५॥ पशुरानीयतामेक इत्याऽऽकानुमोदिनः । आनिन्यिरे तेऽथ पशुं पशुधन्मन्दाबुद्ध यः ॥ १०६ ॥ उद्योदय॑ च स्वांगमन्नेन व्याधिषतिकाः। तेनाचारि पशुस्तापद्यावत् कुष्ठी बभूव सः॥१०॥ -त्रिशलाका• पर्व १०॥सर्ग ६ एक समय उस ब्राह्मण ने विचार किया कि- "मैंने इन पुत्रों को श्रीमंत किया तब अब समुद्र तीरकर वाहण को छोड़ रहे वैसे ही उन्होंने मुझे छोड़ दिया है। वे वाणी के द्वारा मुझसे बोलते भी नहीं है। विपरीत मुझ पर क्रोध करते है। इस प्रकार विचार कर असंतोषी अभव्य की तरह वह कुष्टी कोपायमान हुआ। फल स्वरूप उसने निश्चय किया कि जैसे ये पुत्र हमारी जुगुप्सा करते है वैसे ही वे भी जुगुप्सा करने के योग्य है। उस प्रकार मुझे करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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