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________________ ( ३२७ ) भासाय दोसे य विवज्जगस्स, गुणेय भासाय णिसेवगस्स । महन्वप पंच अणुव्वर य तहेच पंचासव संवरे य । विरह इहस्सामणियम्मि पण्णे, लवावसक्की समणे त्ति बेमि ॥ - सूय० न २ । अ ६ । गा ३ उत्तरार्ध, ४, ५, ६ पहले, अब तथा भविष्य में सर्वदा भगवान महावीर एकान्त का ही अनुभव करते । उनकी पूर्व अवस्था और आधुनिक अवस्था में वस्तुतः कोई फर्क नहीं है । तथा पहले भगवान् महावीर अपने चतुर्विध घाटी कर्मों का क्षय करने लिए मौन रहते थे और एकांत का सेवन करते थे परन्तु अब उन कर्मों का नाश करके शेषं चतुर्विध अघाती कर्मों का क्षपण करने के लिए एवं उच्च गोत्र, शुभ आयु और शुभ नाम आदि प्रकृतियों का क्षय करने के लिए महाजनों की सभा में वे धर्म का उपदेश देते हैं । अतः उनको चंचल बताना अज्ञान है । बारह प्रकार की तपस्या से अपने शरीर को तपाये हुए तथा प्राणियों को 'मतमारो' ऐसा कहने वाले भगवान महावीर केवल ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत को जान कर त्रस स्थावर प्राणियों के कल्याण के लिए हजारों जीवों के मध्य में धर्म का कथन करते हुए मी एकान्त का ही अनुभव करते है। क्योंकि उनकी चित्तवृत्ति उसी तरह की बनी हुई रहती है। धर्म का उपदेश करते हुए भगवान को दोष नहीं होता क्योंकि भगवान् समस्त परिषों को सहन करने वाले, मन को वश में किये हुए और इन्द्रियों के विजयी है। अतः भाषा के दोषों से वर्णित करने वाले भगवान् के द्वारा भाषा का सेवन किया जाना गुण ही है दोष नहीं है ! कर्म से दूर रहने वाले तपस्वी भगवान् महावीर के श्रमणों के लिए पाँच महाव्रत और भावकों के लिए पाँच अणुव्रत तथा पाँच आस्रव और संवर का उपदेश करते है एवं पूर्ण साधुपने में वे विरति की शिक्षा देते हैं। यह मैं कहता हूँ । (ख) गोशालक का प्रवाद सीओदगं सेवउ बीयकार्य, एतवारिस्सिह अम्ह धम्मे, - सूय० श्रु २ अ ागा ७ पृ० ४६२ कच्चा जस्त, बीजकाय, आधा कर्म तथा स्त्रियों का भले ही सेवन करता हो परन्तु जो अकेला विचरने वाला पुरुष है उसको हमारे धर्म में पाप नहीं लगता है । आर्द्र कुमार का उत्तर अहायकम्मं तह इत्थियाओ । तबस्सिणो णाभिसमेह पावं ॥ सीमोदगं वा तह बीयकार्य, आहायकम्मं वह इत्थियाओ । एयाइं जाणं पडिसेषमाणा, अगारिणो अस्समणा भवंति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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