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________________ ( २६४ ) - तिरिक्खजोणिएसु उचवण्णा ॥ १८२ ॥ गोयमा ! उसणं नरग-1 1 भग० श ७ । ४६ । सू १७३-१८१ अरिहंत ने जाना है, अरिहंत ने प्रत्यक्ष किया है, अरिहंत ने विशेष रूप से जाना है कि महाशिला नामक संग्राम है । महाशिला संग्राम में वजी (इन्द्र) और कूणिक पुत्र जीते और नवमल्लकी और लेच्छुकी जो काशी और कोशल देश के अठारह गण राजा थे – पराजय को प्राप्त हुए । - तत्पश्चात – महाशिला कंटक संग्राम विकुर्वित होने के पश्चात् - वह कूणिक राजा महाशिला कंटक नामक संग्राम उपस्थित हुआ जानकर स्वयं के कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है। बुलाकर उनको ऐसा कहा - कि हे देवानुप्रिय ! शीघ्र उदायि नामक पट्टहस्ति को तैयार करो और घोड़ा, हाथी, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंग सेना को तैयार करो। तैयार कर हमारी आज्ञा जल्दी वापस दो । तत्पश्चात वह कूणिक राजा के ऐसा कहने से वे कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट-तुष्ट होकर अंजलीकर - हे स्वामिन्! इस प्रकार 'जैसी आज्ञा' - ऐसा कहकर आज्ञा और विनय से वचन को स्वीकार करते हैं, वचन को स्वीकार कर कुशल आचार्यों के उपदेश से वीक्षण मति कल्पना के विकल्पों से औपपातिक सूत्र के कथनानुसार यावत् भयंकर जिसके साथ कोई भी युद्ध नहीं कर सकता ऐसे उदायि नामक मुख्य हस्ति को तैयार करता है । थोड़े हाथी घोड़े आदि से युक्त यावद ( चतुरंग सेना को तैयार करता है ।) वह सेना को सजितकर जहाँ कूणिक राजा था- वहाँ आया । आकर करतल जोड़कर कूणिक राजा को उसने आज्ञा वापस दी । उसके बाद कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आता है और वहाँ आकर स्नानगृह में प्रवेश करता है । वहाँ प्रवेशकर स्नान- बलिकर्म कर, और प्रायश्चित्तरूप कौतुक और मंगलकर सर्वालंकार से विभूषित होकर, सन्नद्ध बद्ध होकर, बख्तर को धारणकर वालेल धनुर्दण्ड ग्रहणकर, डोक में आभूषण पहनकर, उत्तमोत्तम चिह्न पर बाँधकर, आयुध और और प्रहरणों को धारणकर मस्तक में धारण कराते कोरटंक पुष्प की मालावाले छत्र सहित, जिनका अंगचार चामर के बाल से वीजित था। जिनके दर्शन से मंगल और जय शब्द होता है - ऐसा ( कूणिक ) औपपातिक सूत्र के कथनानुसार यावत् आकर उदायि नामक प्रधान हस्ति पर चढ़ा | उसके बाद हार से उसका वक्षःस्थल ढंका होने से रति उत्पन्न करता हुआ - औपपातिक सूत्र के अनुसार वारम्बार वींजाता श्वेत चामर से यावत् घोड़ा, हाथी, रथ और उत्तम योद्धाओं में युक्त चतुरंग सेना के साथ परिवार मुक्त, महान् सुभटों के विस्तीर्ण समूह से व्याप्त कूणिक राजा जहाँ महाशिला कंटक था - वहाँ आया । Jain Education International वहाँ आकर महाशिला कंटक संग्राम में उतरा । उसके देवेन्द्र-शक्रेन्द्र एक मोटा वज्र के समान अभेद्य कत्रच विकुर्वित कर उभा रहा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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