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________________ ( 34 ) अस्तु महावीर और बुद्ध दोनों समसामयिक युगपुरुष थे, यह एक निर्विवाद विषय है। फिर भी जैन आगमों में बुद्ध का नामोल्लेख तथा बुद्ध व बौद्ध भिक्षुओं से सम्बन्धित कोई घटनाप्रसंग उपलब्ध नहीं होता। केवल सूत्रकृतांग सूत्र के कुछ एक पद्य बौद्ध मान्यताओं का संकेत देते हैं । पर अंग-साहित्य का जो अंश निश्चित रूप से बहुत प्राचीन है, उसमें बौद्धों के उल्लेख का सर्वथा अभाव है। जबकि जैसे बताया गया है-बौद्ध त्रिपिटकों में महावीर और उनके भिक्षुओं से सम्बन्धित नाना घटना प्रसंग उपलब्ध होते हैं। महावीर और बद्ध दोनों ही श्रमण संस्कृति के धर्मनायक होने के नाते एक दूसरे के बहुत निकट भी थे। त्रिपिटको के कतिपय समुल्लेख भी बद्ध को तरुण और महावीर को ज्येष्ठ व्यक्त करते हैं। प्रथक उपांग औपपातिक के वृत्तिकार अभयदेव सूरी थे। जिनका अस्तित्वकाल विक्रय की ग्यारवीं-बारहवीं शताब्दी था। राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ठि-इन छह उपांगों के वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि थे। जिनका अस्तित्व काल विक्रम की बारहवीं शताब्दी था। कल्पिका (निरयावलिका), कल्पावत सिका, पुष्पिका, पुष्पचुलिका, वहिदशा-इन पाँच उपांगों के वृत्तिकार श्रीशांतिचन्द्रसूरि थे-जिनका अस्तित्व काल विक्रम की बारहवी शताब्दी था। जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के वृत्तिकार शांतिचन्द्र सूरि भी थे। वे हीरविजय सूरि के शिष्य थे। जिनका अस्तित्व काल विक्रय की १६वीं शताब्दी था। सूत्रकृतांग की चूर्णि में बारह अंगों को श्रुत पुरुष के अंगस्थानीय और शेष आगमों को उपांग कहा गया है।' कहा है सुअपुरसस्स बारसंगाणि मुलत्थाणीयाणि । सेससुतक्खंधा उवंगाणि कलाप्यङ्गुष्ठादिवत् ।। -सूय नि० गा २ चूर्णि आचार्य जिनप्रभ ने चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति- इन दोनों को भगवती के उपांग माने हैं। जैन आगमों में अंगों का मुख्य स्थान है । उनको नियत श्रत माना गया है । अंगबाह्यश्रत अनियत है। अङ्ग स्वतः प्रमाण है। अंग बाह्यश्रत पदतः प्रमाण है। इसका प्रामाण्य अंग पर आधृत है। अंग गणधर कृत होते हैं। अंग बाह्यश्रत स्थविर कृत होता है। भगवान महावीर के समय में साधना की चार भूमिकाएँ थी और उनके साधकों की भिन्न-भिन्न विशेषताएँ थीं। यथा श्रमण, निर्ग्रन्थ, स्थविर और अनगार। इनका व्यवस्थित वर्णन भी मिलता है। संभव है भगवान महावीर के समय में जिनकल्पी के लिए 'निर्ग्रन्थ' और स्थविर कल्पी के १-विधि मार्ग प्रपा० पृ० ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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