SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २८. ) उस समय दशपुर नाम का नगर था। वहाँ राजकुल से सम्मानित ब्राह्मणपुत्र आर्यरक्षित रहता था। उसने-अपने पिता से पढ़ना प्रारम्भ किया। पिता का सारा ज्ञान जब पढचुका तब विशेष अध्ययन के लिये पाटलिपुत्र नगर में गया और वहाँ चारों वेद उसके अंग और उपांग और अन्य अनेक विद्याओं को सीखकर लौटा। माता के द्वारा प्रेरित होकर उसने जैनाचार्य तोसलिपुत्र से भागवती दीक्षा ग्रहण कर दृष्टिवाद का अध्ययन प्रारम्भ किया। और तदनन्तर आर्य वज्र के पास नौ पूर्वो का अध्ययन संपन्न कर दसवे पूर्व के चौबीस यविक ग्रहण किये। आचार्य आयरक्षितके तीन प्रमुख शिष्य थे-दुर्बलिका पुष्पामित्र, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । उन्होंने अंतिम समय में दुर्बलिकापुष्यमित्र को गण कर भार सौंपा। एक बार आचार्य दुर्बलिका पुष्पमित्र अर्थ की वाचना दे रहे थे। उसके जाने के वाद विध्य उस वाचना का अनुसरण कर रहा था । गोष्ठामाहिल उसे सुन रहा था। उस समय आठवें कर्मप्रवाद पूर्व के अंतर्गत कर्म का विवेचन चल रहा था। उसमें एक प्रश्न यह था कि जीव के साथ कर्मों का बंध किस प्रकार होता है उसके समाधान में कहा गया था कि कर्म का बंध तीन प्रकार से होता है। १- स्पृष्ट-कुछ कर्म जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श मात्रा करते है और कालान्तर में स्थिति का परिपाक होनेपर उनसे विलय हो जाते हैं। जैसे सूखी भीत पर फेंकी गई रेत भीत के स्पर्श मात्र कर नीचे गिर जाती है । २-स्पृष्ट बद्ध-कुछ कर्म जीव प्रदेशों का स्पर्श कर बद्ध होते हैं और वे भी कालान्तर में विलय हो जाते हैं जैसे-गोली भींत पर फेंकी गई रेत, कुछ चिपक जाती है और कुछ नीचे गिर जाती हैं। ३.स्पृष्ट-बद्ध निकाचित-कुछ कर्म जीव प्रदेशों के साथ गाद रूप में बंध प्राप्त करते है। वे भी कालान्तर में विलय हो जाते है । यह प्रतिपादन सुनकर गोष्ठामाहिल का मत विचिकित्सा से भर गया। उसने कहा-कर्म को जीव के साथ बद्ध मानने से मोक्षका अभाव हो जायेगा । कोई भी प्राणी मोक्ष नहीं जा सकेगा। अतः सही सिद्धान्त यही है कि कर्म जीव के साथ स्पृष्ट होते है, बद्ध नहीं। क्योंकि कलान्तर में वे वियुक्त होते हैं। जो वियुक्त होता है, वह एकात्मक से बद्ध नहीं हो सकता। उसने अपनी शंका विंध्य के समक्ष रखी। बिंध्य ने बताया कि आचार्य ने इसी प्रकार का अर्थ बताया है । गोष्ठामाहिल के गले यह बात नहीं उतरी। वह मौन रहा। लोगो ने गोष्ठामाहिल को समझाया, पर वह नहीं माना। अंत में पुष्यमित्र उसके साथ आकर बोले-अर्य-तुम इस सिद्धान्त पर पुनर्विचार करो, अन्यथा तुम संघ में नहीं रह सकोगे। गोष्ठामाहिल ने उनके वचनों का भी आदर नहीं किया। उसका आग्रह पूर्ववत रहा। तब संघ ने उसे बहिष्कृत कर डाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy