SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 ( २७८ ) अट्ठावीसा दो बाससया तइया सिद्धिगयस्स वीरस्स || दो किरियाण डल्लुगतीरे दिट्ठी समुपपन्ना ॥ प्राचीनकाल में उल्लुका नदी के एक किनारे खेड़ा था । और दूसरे किनारे उल्लुकातीर नाम का नगर था । वहाँ आचार्य महागिरि के शिष्य आचार्य धनगुप्त रहते थे । उनके शिष्य का नाम गंग था। वे भी आचार्य थे । वे उल्लुका नदी के इस ओर खेड़े में वास करते थे । एक बार वे शरद् ऋतु में अपने आचार्य को वंदना करने निकले । मार्ग में उल्लुका नदी थी । वे नदी में उतरे। वे गंजे थे। ऊपर सूरज तप रहा था। नीचे पानी की ठंडक थी। उन्हें नदी पार करते समय सिर में सूर्य की गर्मी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था । उन्होंने सोचा - आगमों में ऐसा कहा गया है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं । किन्तु मुझे प्रत्यक्षतः एक साथ दो क्रियाओं का वेदन हो रहा है । वे अपने आचार्य के पास पहुँचे । और अपना अनुभव उन्हें सुनाया । गुरू ने कहा - वत्स ! वास्तव में एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो नहीं । मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है, अतः हमें उसकी पृथक्ता का पता नहीं लगता । गुरू के समझाने पर भी वे नहीं समझे । तब उन्हें संघ से अलग कर दिया । - आव० माध्य गा १३३ .६ त्रैराशिक भगवान् महावीर के निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात् अंतरंजिका नगरी में त्रैराशिक मत का प्रवर्तन हुआ । इसके प्रवर्तक आचार्य रोहगुप्त थे ( षडूलुक ) Jain Education International प्राचीन समय में अंतरंजिका नाम की नगरी थी। वहाँ के राजा का नाम बलश्री था । वहाँ भूतागृह नाम का एकचैत्य था । एक बार आचार्य श्री गुप्त वहाँ ठहरे हुए थे । उनके संसारपक्षीय भानेजरोहगुप्त उनका शिष्य था। एक बार वह दूसरे संघ से आचार्य को वंदना करने आ रहा था । वहाँ एक परिव्राजक रहता था । उसका नाम था पोशाल वह अपने पेट को लोहे की पट्टी से बांधकर, जंबू वृक्ष की एक टहनी को हाथ में ले घूमता था ! किसी के पूछने पर वह कहता - ज्ञान के भार से मेरा पेट फट न जाएइसलिए मैं अपने पेट को पहियों से बाँधे रहता हूँ तथा इस समुचे जंबूद्वीप में प्रतिवाद करने वाला कोई नहीं, अतः जंबू-वृक्ष की शाखा को हाथ में ले घूमता हूँ वह सभी धार्मिकों को बाद के लिए चुनौती दे रहा था। सारे गाँव में चुनौती का पटह फेरा। रोह गुप्त ने उसकी चुनौती स्वीकार कर आचार्य को सारी बात सुनाई। आचार्य ने कहा - वत्स ! तुमने ठीक नहीं किया । वह परिब्राजक अनेक विद्याओं का ज्ञाता था ज्ञाता है । इस दृष्टि से वह तुमसे बलवान् है । वह ज्ञात विद्याओं में पारंगत है । पंच सया चौपाला तहया सिद्धि गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरं जियाए तेरासियदिट्ठी उप्पन्ना ॥ For Private & Personal Use Only आव० भाग्य गा १३५ www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy