SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २७२ ) गले की पोरी और शाल्यलीक की कली बहुत से पुरुषों की आस्वादनीय, प्रार्थनीय, स्पृहणीय और अभिलषणीय होती है इसी प्रकार स्त्रियाँ भी बहुत से पुरुषों की अस्वादनीय और अभिलषणीय होती है, अतः स्त्रीत्व निश्चय से कष्ट रूप है और पुरुषत्व साधु है । पुरुष के सुखों के अनुभव करने करने की इच्छा जइ इमस्स तव-नियमस्स जाव अस्थि वयमपि णं आगमेस्साणं इमेयारूवाइ ओरालाइ पुरिस-भोगाइ भुजमाणा विहरिस्सामो । सेतं साहू। -दसासु० द १० __ यदि इस तप-नियम का कोई फल विशेष है तो हम भी भविष्य में इसी प्रकार के उत्तम पुरुष-भोगों को भोगते हुए विचरेंगी। यही ठीक है। पुरुष बनकर सुख भोगने और धर्म के सुनने की अयोग्यता का वर्णन : एवं खलु समणा उसोणिग्गंथी णिहाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कंता जाव मपडिवजिज्जा कालमा से कालं कच्चा अण्णयरेसु देवलोएनु देवत्ताए उववत्तारो भवति । साणं तत्थ देवे भवति महड्ढए जाव महासुक्खे। साणं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं अणं तरं चयं चइत्ता जे इमे भवति उग्गपुत्ता तहेव दारए जावकिं ते आसग्गस्स सदति तस्सणं तहप्पगारस्स पुरिस जातस्स जाव । अभविएणं ते तस्स धम्मस्स सवणताए। सेजं भवति महच्छे जाव दाहिणगाभिए जाव दुल्लभबोहए यावि भवति । एवं खलु जाव पडिसुणत्तए। -दसासु० द १० हे आयुष्यमन् ! भ्रमण ! इस प्रकार निग्रन्थी निदान कर्म करके और उसका गुरु से उस समय बिना आलोचना किये, बिना उससे पीछे हटे तथा बिना प्रायश्चित ग्रहण किये मृत्यु के समय काल करके किसी एक देव लोक में देव रूप से उत्पन्न हो जाती है । और वहाँ बड़े ऐश्वर्य और सुखवाला देव हो जाता है । फिर उस देवलोक से आयु-क्षय होने के कारण बिना किसी अंतर के देव-शरीर को छोड़कर जो ये उग्रपुत्र हैं उनके कुल में बालक रूप से उत्पन्न होता है। सेवक उससे प्रार्थना करते हैं कि आपको कौनसा पदार्थ रुचि कर है। इस प्रकार का पुरुष केवलिभासित धर्म से सुनने के अयोग्य होता है। किन्तु वह बड़ी इच्छाओं वाला और दक्षिणगामी नैरयिक होता है और दुर्लभ बोधि कर्म भी उपार्जना करता है । इस प्रकार हे आयुष्यमन् ! भमण ! वह केवलिप्रतिपादित धर्म को सन नहीं सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy