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________________ ( २६७ ) नाथ एवं खलु समणउसो ! निग्गंथो व निग्गंधी वा णिदाणं किया तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कते तं जाय विहरति । दसासु ६ १० हे आयुष्पमन् ! भ्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है । यावद मनुष्यों के कामभोग अनियत है, शेष पूर्ववद ही है । ऊर्ध्व देवलोक में जो देव हैं वे अन्य देवों की देवियों से काम - उपभोग नहीं करते, अपनी ही आत्मा से विकुर्वणा ( प्रकट ) की हुई देवियों से मैथून क्रिया नहीं करने किन्तु अपने ही देवियों को वश में करके उनको मैथुन में प्रवृत्त कराते हैं । भी यदि इस तप-नियम का कोई फल है तो मैं काम-क्रीड़ा करने वाला बनूं । वह इस अपनी भावना के वहीँ बड़े ऐश्वर्य और सुखवाला देव हो जाता है । चाहिए। देवलोक में अपनी ही देवी से अनुसार देव बन जाता है और इत्यादि सब पूर्ववद ही जान लेना हे आयुष्यमन् ! श्रमण ! निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी इस प्रकार निदान कर्म करके बिना उसी स्थान पर उसकी आलोचना किये और उससे बिना पीछे हटे कालमास में काल कर के, देवरूप से विचरता है । से तत्थ अण्णेसि देवाणं अण्णं देवि अभिजुंजिय परियारेति, णो अप्पणा चेव अप्पाणं वेव्वित्र परियारेति, अप्पणिज्जाओ देवीओ अभिजुंजिय परियारेति, से णं ततो आउक्खपणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं तहेव वत्तव्वं । णवरं हंता सहहेज्जा पत्तिपज्जा रोएज्जा । से णं सील-ध्वत-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववालाई पडिवज्जेजा णो तिणट्ठे समट्ठे, से णं दंसणसावए भवति । टीका - सम्यक्त्वं तदाश्रित्य श्रावको निगद्यते । वह वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ मैथून क्रीड़ा नहीं करता, अपनी आत्मा से स्त्री-पुरुष के रूप विकुर्वणाकर अपनी कामतृष्णा को नहीं बुझाता है, किन्तु अपनी ही देवी के साथ मैथुन कर सन्तुष्ट रहता है । Jain Education International -दसासु० द १० तदनन्तर वह आयु, भव और स्थिति के क्षय होने से देवलोक में उत्पन्न होता है। है इत्यादि सब वर्णन पूर्वोक्त निदान कर्मों के समान ही है, विशेषता केवल इतनी ही है कि वह केवलभाषित धर्म में श्रद्धा, विश्वास और रूचि करने लग जाता है, किन्तु यह संभव नहीं है कि वह शील, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासादि व्रतों को ग्रहण करे । वह दर्शन -: न श्रावक हो जाता है । सम्यक्त्व के आश्रित होने के कारण उसको दर्शन श्रावक कहा जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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