SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 32 ) एक बार पेढाल परिव्राजक ने साध्वियों से सत्यकी को ले जाकर उसे विद्याएँ सिखाई। पाँच जन्म तक वह रोहिणी विद्या द्वारा मारा गया। छठे जन्म में जब आयु. काल केवल छह महीनों का रहा तब उसने उसे साधना छोड़ दिया। सातवें जन्म में वह सिद्ध हुई। वह उस सत्यकी के ललाट में छेद कर शरीर में प्रवेश कर गई। देवता ने उस ललाट-विवर को तीसरे आँख में परिवर्तित कर दिया । सत्यकी ने देवता की स्थापना की। उसने कालसंदीप को मार डाला और वह विद्याधरों का राजा हो गया। तब से वह सभी तीर्थ करों को वंदना कर नाटक दिखाता हुआ विहरण कर रहा है । ८-अम्मड परिवाजक-एक बार श्रमण भगवान महावीर चम्पानगरी में समवसृत हुए । परिव्राजक विद्याधर श्रमणोपासक अम्मड ने भगवान से धर्म सुनकर राजगह की ओर प्रस्थान किया। उसे जाते देखकर भगवान ने कहा-'श्राविका सुलसा को कुशल समाचार कहना।' अम्मह ने सोचा-'पुण्यवती है सुलसा कि जिसको स्वयं भगवान कुशल समाचार भेज रहे है। उसमें कौन-सा गुण है। मैं उसके सम्यक्त्व की परीक्षा करूँगा । अम्मड परिवाजक के वेश में सुलमा के घर गया और बोला-आयुष्मति ! मुझे भोजन दो, तम्हें धर्म होगा ? सुलसा ने कहा-मैं जानती हूँ किसे देने में धर्म होता है । अम्मड आकाश में गया, पद्मासन में स्थित होकर विभिन्न लोगों को विस्मित करने लगा। लोगों ने उसे भोजन के लिए निमन्त्रण दिया। उसने निमन्त्रण स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। पूछने पर उसने कहा-मैं सुलसा के यहाँ भोजन लूँगा। लोग दौड़े-दौड़े गये और सुलसा को बधाइयाँ देने लगे। उसने कहा-'मुशे पाखण्डियों से क्या लेना है। लोगों ने अम्मड से यह बात कही। अम्मड ने कहा-यह परम सम्यग्दृष्टि है। इसके मन में व्यामोह नहीं है । वह तब लोगों को साथ ले सुलसा के घर गया। सुलसा ने उसका स्वागत किया। वह उससे प्रतिबुद्ध हुआ। ___ वृत्तिकार ने बताया है कि औपपातिक सूत्र में (४० में) अम्मड परिवाजक के महाविदेह में सिद्ध होने की बात कही है। वह कोई अन्य है।' अर्हव अर्थ का व्याख्यान करते हैं। धर्म-शासन के हित के लिए गणधर उनके द्वारा व्याख्यात अर्थ का सूत्र रूप में कथन करते हैं इस प्रकार सुत्र प्रवृत्त होता है। गणधर आगम-वाङ्मय का प्रसिद्ध शब्द है। आगमों में मुख्यतया दो अर्थों में व्यवहृत हुआ है। तीर्थ करों के प्रधान शिष्य गणधर कहे जाते है, जो तीर्थंकरों द्वारा अर्थागम के रूप में उपदिष्ट ज्ञान का द्वादश अंगों के रूप में संकलन करते है। प्रत्येक गणधर के नियन्त्रण में एक गण होता है, जिसके संयम-जीवितव्य के निर्वाह का गणधर पूरा ध्यान रखते हैं। गणधर का उससे भी अधिक आवश्यक कार्य है, अपने अधीनस्थ गण को आगम-वाचना देना। १ स्थानांगवृत्ति-पत्र ४३४ : यश्चौपपातिकोपाङ्ग महाविदेहे सेत्स्यतित्यभिधीयते सोऽन्यइति सम्भाव्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy